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________________ आत्मधर्म के आद्य सम्पादक 49 तो वे छूटते ही बोले. - "जैसा गुरुदेवश्री कर गये हैं, वैसा ही रहेगा; जैसा उनके सामने चलता था, वैसा ही अब भी चलाइये।" 64 हमने संकोच से कहा 'आप तो कहते हैं, पर - हम अपनी बात पूरी ही न कर पाये कि वे बीच में ही बोल पड़े 11 "लाओ, हम लिखकर देते हैं, फिर उन्होंने तत्काल कागज-पेन मंगाया और इस वृद्धावस्था में भी पूरा अपने हाथ से गुजराती में लिखकर दिया, जो आज भी हमारे पास सुरक्षित है। उसके महत्वपूर्ण अंश का अक्षरश: हिन्दी अनुवाद इसप्रकार है "धर्मप्रेमी नेमीचन्दजी पाटनी एवं डॉ. हुकमचन्दजी, आज आप दोनों हिन्दी आत्मधर्म जो जयपुर से प्रकाशित होता है, उसके कार्यक्षेत्र के संबंध में खुलासा (करने-कराने) के लिए आये; इसलिए मैं निम्नलिखितानुसार स्पष्टीकरण करना योग्य समझता हूँ - - יין - — पूज्य गुरुदेवश्री की अनुपस्थिति में सभी कार्य उसीप्रकार चलना चाहिए, जिसप्रकार गुरुदेवश्री की उपस्थिति में चलते थे । इसलिए हिन्दी आत्मधर्म का प्रकाशन जिसप्रकार जयपुर से होता आया है, वह उसीप्रकार अभी भी वहाँ से ही चालू रखना है। आपने हमसे यह भी चर्चा की कि पूज्य गुरुदेव श्री एवं पू. बहिनश्री के लिए क्या-क्या विशेषणों और शब्दों का प्रयोग करना । इस संबंध में भी मैं स्पष्ट करता हूँ कि जबसे हिन्दी आत्मधर्म का प्रकाशन जयपुर से आरंभ हुआ है, तब से गुरुदेवश्री की उपस्थिति में जो विशेषण या शब्द प्रयोग करते रहे हैं; उनको आगे भी चालू रहना चाहिए। अतः उसी के अनुसार आगे रखना, जिससे गुरुदेव श्री के समक्ष से चली आई प्रणाली चालू रह सकेगी । " उक्त उद्धरण से उनकी गुरुदेव श्री के प्रति निष्ठा एवं गुरुदेव श्री की उपस्थिति में चलनेवाली धर्मप्रभावना उसीप्रकार चलती रहे यह भावना हाथ पर रखे आँवले के समान स्पष्ट हो जाती है। इसी भावना से वे आज इस वृद्धावस्था सोनगढ़ में गुरुदेव श्री के अभाव में भी एकाकी डटे हुए हैं, अन्यथा सर्वप्रकार
SR No.009446
Book TitleBikhare Moti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla, Yashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2001
Total Pages232
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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