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बिखरे मोती प्रवचनसार परमागम के मर्म को खोलने वाली तत्त्वप्रदीपिका नामक टीका के अन्त में तो यहाँ तक लिखते हैं कि -
( शार्दूलविक्रीडित छन्द ) .. "व्याख्येयं किल विश्वमात्मसहितं व्याख्या तु गुम्फे गिरां ।
व्याख्यातामृतचन्द्रसूरिरिति मा मोहाजनो वल्गतु ॥ 'आत्मा सहित विश्व व्याख्येय है, वाणी का गुम्फन व्याख्या है और आचार्य अमृतचन्द्र व्याख्याता हैं' - हे जनो ! इसप्रकार मोह में मत नाचो।"
इस छन्द में भी मात्र नाम का ही उल्लेख है, पर 'सूरि' शब्द यहाँ भी नाम के साथ लगा हुआ है। पर इस छन्द की महत्त्वपूर्ण बात तो यह है कि वे आत्मा को वाणी या भाषा का कर्ता मानने को मोह में नाचना मानते हैं। ऐसी स्थिति में वे अपने कर्तृत्व पर प्रकाश कैसे डाल सकते थे? इसीप्रकार देहादि संयोगों से अपने को पृथक् मानने वाले स्वरूपगुप्त आचार्य अमृतचन्द्र अपने नाम से देहादि संयोगों का परिचय भी कैसे देते ?
जिन-अध्यात्म के क्षेत्र में आचार्य कुन्दकुन्द के बाद यदि किसी का नाम लिया जा सकता है तो वे हैं आचार्य अमृतचन्द्र, जिन्होंने न केवल आचार्य कुन्दकुन्द के ग्रन्थराज समयसार, प्रवचनसार एवं पंचास्तिकायसंग्रह पर आत्मख्याति, तत्त्वप्रदीपिका एवं समयव्याख्या जैसी अद्भुत, अपूर्व एवं सशक्त टीकाएँ लिखीं; अपितु अनेक मौलिक ग्रन्थ भी लिखे, जो अपनी विशिष्ट शैली
और मौलिकता के लिए प्रसिद्ध हैं। ____ आचार्य कुन्दकुन्द और अमृतचन्द्र में लगभग एक हजार वर्ष का अन्तर है, पर आचार्य कुन्दकुन्द के ग्रन्थों पर अमृतचन्द्र के पूर्व लिखी गई कोई टीका देखने में नहीं आई। तो क्या कुन्दकुन्द के ये महान ग्रन्थराज एक हजार वर्ष तक ऐसे ही चलते रहे ? उनपर किसी ने कलम नहीं चलाई ? यह तो संभव नहीं लगता। हाँ, यह तो हो सकता है कि वे कृतियाँ इतनी सशक्त और प्रौढ़ न हों, जो अमृतचन्द्र की टीकाओं के सामने टिक सकती; अत: स्वयं ही काल के गाल में समा गई हों।