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जिनअध्यात्म के सशक्त प्रतिपादक
आचार्य अमृतचन्द्र
आत्मख्याति से सर्वथा दूर रहने वाले दिगम्बर सन्तों में विलक्षण प्रतिभा के धनी एवं जिन-अध्यात्म के सशक्त प्रतिपादक आचार्य अमृतचन्द्र ने अपनी कृतियों में अपने नाम के अतिरिक्त कहीं कुछ भी नहीं लिखा है। आचार्य कुन्दकुन्द के ग्रन्थाधिराज समयसार पर आत्मख्याति जैसी सशक्त टीका लिखने के उपरान्त भी अन्त में यही लिखते हैं -
(उपजाति ) . "स्वशक्ति संसूचितवस्तुतत्त्वैः व्याख्या कृतेयं समयस्य शब्दैः ।
स्वरूपगुप्तस्य न किचिंदस्ति कर्तव्यमेवामृतचन्द्रसूरेः ।। २७८ ॥ अपनी सहज योग्यता और स्वयं की शक्ति से वस्तुस्वरूप को सूचित करने वाले, प्रतिपादन करने वाले शब्दों के द्वारा यह समयसार की व्याख्या की गई है। अपने स्वरूप में गुप्त, शुद्धचैतन्य में लीन रहने वाले मुझ आचार्य अमृतचन्द्र का इसमें कुछ भी कर्त्तव्य नहीं है।"
उक्त छन्द में वे स्पष्ट कह रहे हैं कि लोक में आचार्य अमृतचन्द्र नाम से प्रसिद्ध मैं तो स्वरूपगुप्त हूँ, सदा अपने स्वरूप में ही रहने वाला हूँ।
जगत कुछ भी कहे, पर वे तो स्वयं को निश्चयनय की प्रधानता से स्वरूपगुप्त ही मानते हैं।
अध्यात्म के जोर में वे कुछ भी कहें, पर उक्त कथन से इतना व्यावहारिक सत्य तो स्पष्ट हो ही गया है कि उनका नाम अमृतचन्द्र था और वे आचार्य पद पर प्रतिष्ठित थे।