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सागर प्रशिक्षण शिविर
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यहाँ की धर्म - भीरु जनता में आज भी वे संस्कार विद्यमान हैं, जो देश के अन्य भागों में बसनेवाले लोगों में दुर्लभ होते जा रहे हैं।
समाज के मार्गदर्शक विद्वान होते हैं । जैनसमाज में आज जो भी विद्वान देखने में आ रहे हैं। उनमें से अधिकांश इस पावन भूमि की ही देन है। वीतरागी सन्तों का विहार भी जितना इस प्रदेश में होता रहता है, उतना अन्यत्र नहीं । सहज धार्मिक वातावरण ही इन सबका एकमात्र कारण है ।
आध्यात्मिक सत्पुरुष श्री कानजी स्वामी की आध्यात्मिक क्रान्ति का लाभ भी जितना इस प्रदेश ने उठाया है, उतना अन्य प्रदेशों ने नहीं । शुद्धाम्नाय का असली गढ़ भी बुन्देलखण्ड ही है। तारणस्वामी की आध्यात्मिक क्रान्ति का मूलस्थान भी यही भूभाग रहा है। इस पावन भूभाग में जन्म लेने के कारण मैं अपने को सौभाग्यशाली अनुभव करता हूँ।
जैनसंस्कृति, सभ्यता, सदाचार एवं जिनवाणी की आराधना के गढ़ इस भूभाग के केन्द्र में स्थित 'सागर' नगर भी वर्णीजी का स्पर्श पाकर धार्मिक शिक्षा के क्षेत्र में एक महत्त्व पूर्ण केन्द्र बन गया है।
वैसे तो मैंने लगभग २५ वर्ष पूर्व सागर में एक पर्यूषणपर्व भी किया था, पर सर्वाधिक स्मरणीय है १५ वर्ष पूर्व नवम्बर, १९७१ ई. में लगा वह शिक्षणशिवर, जिसमें आदरणीय विद्वद्वर्य सर्वश्री खीमचंदभाई जेठालाल शेठ, राजकोट; बाबूभाई चुन्नीलाल मेहता, फतेपुर; बाबू जुगलकिशोरजी 'युगल', कोटा; सिद्धान्ताचार्य पण्डित फूलचन्दजी, वाराणसी; एवं पण्डित जगन्मोहनलालजी शास्त्री कटनी आदि विद्वान भी पधारे थे । स्थानीय विद्वान तो वहाँ थे ही। सागर भी विद्वानों की नगरी है - यह तो सब जानते ही हैं।
क्या वातावरण था उस समय का ? सारा सागर ही अध्यात्ममय हो गया था । नवम्बर की भयंकर सर्दी में भी रात को ग्यारह बजे तक कटरा बाजार के खुले मैदान में लोग जमे रहते थे, कोई हिलने का भी नाम नहीं लेता था । सायं साढ़े सात बजे से प्रवचन आरंभ होते, एक-एक घंटे के तीन प्रवचन होते, जिसमें मेरा नम्बर सबसे अन्त में आता, पर जनता उठने का नाम भी न लेती, बड़े ही