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वीतराग-विज्ञान : एक वर्ष
उक्त परिस्थितियों के कारण इस वर्ष कुछ अधिक ही व्यस्तता रही है। आदरणीय बाबूभाईजी की अस्वस्थता एवं श्री लालचंदबाई व युगलजी का भी स्वास्थ्य के कारण बाहर अधिक न निकल पाने के कारण भी बाहर आना-जाना कुछ अधिक हो गया है । मैं सच्चे हृदय से इसे कुछ कम अवश्य करना चाहता हूँ, पर स्नेहीजनों का वात्सल्य इसमें कुछ अधिक ही बाधक बनता जा रहा है। लगता है इस सन्दर्भ में कुछ दृढ़ता से काम लिए बिना चलेगा नहीं।
यद्यपि अधिक भ्रमण से तत्त्वप्रचार सम्बन्धी गतिविधियों को सहज ही विस्तार प्राप्त होता है, तथापि स्थाई महत्त्व के साहित्य-निर्माण में बाधा भी कम नहीं होती। दोनों ही प्रवृत्तियाँ उपयोगी हैं, आवश्यक हैं; फिर भी दोनों में सन्तुलन तो स्थापित करना ही होगा।
इन सबसे ऊपर आत्महित की ओर अधिकाधिक प्रवृत्त होना है, अधिक भ्रमण उसके भी अनुकूल नहीं है । आत्महित के साथ-साथ परहित की प्रवृत्तियों को पुनर्गठित करने में स्नेही श्रोताओं और पाठकों को जो असुविधा हो, उसके लिए क्षमाप्रार्थना के साथ-साथ इस भावना को दुहराते हुए विराम लेता हूँ कि शेष जीवन वीतराग-वाणी की शरण और सेवा में ही संलग्न रहे, समाप्त
हो।
हम देखते हैं कि हमारा चलना-फिरना, उठना-बैठना, सोना, खाना-पीना, निबटना आदि सभी दुःख दूर करने और सुखी होने के लिए ही होते हैं । गहराई से विचार करें तो हमारी छोटी से छोटी क्रिया भी इसी प्रयोजन की सिद्धि के लिए ही होती है। जब हम एक आसन से बैठे-बैठे थक जाते हैं तो चुपचाप आसन बदल लेते हैं और हमारा ध्यान इस क्रिया की ओर जाता ही नहीं है। हम यह समझते ही नहीं हैं कि अभी हमने दु:ख दूर करने के लिए कोई प्रयत्न किया है; पर हमारा यह छोटा-सा प्रयत्न भी दुःख दूर करने के लिए ही होता है।
आत्मा ही है शरण, पृष्ठ १६