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________________ 132 बिखरे मोती जायगा; अपने मार्ग पर दृढ़ता से चलते हुए सुसमय की प्रतीक्षा करते रहने के अतिरिक्त शान्तिप्रिय आत्मार्थियों के लिए कोई उपायान्तर नहीं है। __'वीतराग-विज्ञान के लिए यह एक वर्ष बड़ा ही तूफानी रहा है। व्यवस्था की दृष्टि से यह बात और भी अधिक महत्त्व रखती है; क्योंकि सम्पूर्ण देश से एक सात इतने अधिक ग्राहकों का बनना, आत्मधर्म के ग्राहकों का वीतरागविज्ञान के ग्राहकों में परिवर्तित होना; परिपत्रों कूपनों का आना-जाना आदि इतने कार्य रहे हैं कि जिसका कोई हिसाब नहीं। __ आदरणीय पाटनीजी के निर्देश में प्रबन्ध सम्पादक वीरसागर शास्त्री ने इस कार्य को जिस कुशलता और श्रम के साथ सँभाला है; उसकी जितनी भी प्रशंसा की जावे, थोड़ी है। साथ ही श्री टोडरमल दिगम्बर जैन सिद्धान्त महाविद्यालय के सभी छात्रों का समर्पित सहयोग प्राप्त रहा है। इनके सहयोग के बिना तो यह कार्य इतनी शीघ्रता से सम्पन्न होना सम्भव ही न था। अनेक लोगों के दिनरात परिश्रम से ही सम्पूर्ण कार्य व्यवस्थित हो सका है। ___ इस अवसर पर बम्बई मुमुक्षु मण्डल के कतिपय सदस्यों के महत्त्वपूर्ण सहयोग को स्मरण किए बिना नहीं रहा जा सकता, जिन्होंने अस्थाई आजीवन सदस्यों की समस्या के समाधान में अभूतपूर्व सहयोग दिया है। उनके इस सहयोग ने 'वीतराग-विज्ञान' को ही निरापद नहीं किया, अपितु सोनगढ़ ट्रस्ट के प्रति उत्पन्न असन्तोष को भी दूर करने में आशातीत मदद की है। ___ जहाँ तक वीतराग-विज्ञान की विषय-वस्तु और संपादन की बात है, उसमें आत्मधर्म की सुविचारित रीति-नीति को लगभग पूर्ववत् ही कायम रखा गया है। संक्रातिकाल में कुछ करना न तो उचित ही था और न ही अभीष्ट । संपादन और विषयवस्तु सम्बन्धी रीतिनीति को भी पाठकों ने भरपूर सराहा है, अतः अब उसमें विशेष परिवर्तन की आवश्यकता ही नहीं रह जाती है। फिर भी मैं उसमें अभी और भी परिमार्जन की आवश्यकता अनुभव करता हूँ, इसे और अधिक उपयोगी, सरल, सरस और सर्वग्राही बनाना चाहता हूँ। समय की कमी के कारण तत्काल वह सब-कुछ सम्भव नहीं हो पा रहा है।
SR No.009446
Book TitleBikhare Moti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla, Yashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2001
Total Pages232
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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