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बिखरे मोती काल को 'कानजी युग' ही स्वीकार करेगा; क्योंकि जब वह इस समय के समाचार-पत्रों को उठाकर देखेगा तो उसे उन पत्रों की चर्चा का प्रधान विषय कानजीस्वामी ही दृष्टिगोचर होंगे। पत्रों में विरोध भी उसी का होता है, जिसका कुछ विशेष अस्तित्व होता है। विरोध से ही व्यक्ति का व्यक्तित्व आँका जाता है। जो उस विरोध में भी अडिग रहता है, वही उसकी महत्ता का सूचक होता
युगान्तरकारी युगपुरुष श्री कानजीस्वामी के देहावसान से एक ऐसा मार्गदर्शक ज्योतिस्तंभ ढह गया है, जो आत्मार्थीजनों को निरन्तर मार्गदर्शन करता था। अब उनके गूढ़ रहस्यों को उद्घाटन करनेवाले गुरुगंभीर प्रवचन एवं हृदय को हिला देनेवाले वैराग्यरस भरे मृदु संबोधन हमारे लिए बीते युग की कहानी बनकर रह गये हैं। ___ आत्मार्थीजनों को निजशुद्धात्मतत्त्व का स्वरूप बताने वाले एवं तत्त्वचर्चा का वातावरण प्रदान करने वाले युगपुरुष के अभाव में अब हमें अपना मार्ग स्वयं सोधना है, स्वयं पाना है; तत्त्वचर्चा का आध्यात्मिक वातावरण भी स्वयं बनाये रखना है। आत्महित अर्थात् आत्मानुभूति करने एवं उसकी निरंतरता बनाये रखने के लिए भी अब हमें स्वयं ही सजग रहना है; क्योंकि अब बारबार प्रेरणा प्राप्त होने की संभावना समाप्तप्रायः हो गई है। मनुष्यभव की सार्थकता और सफलता एकमात्र आत्मानुभूति की प्राप्ति में ही है। अत: यदि हमने गुरुदेवश्री जैसे आत्महितकारी अद्भुत निमित्त का थोड़ा भी सत्संग प्राप्त किया है तो जगत के प्रपंचों से दूर रहकर हमें आत्मानुभव प्राप्त कर उन जैसा पावन जीवन व्यतीत करना चाहिए।
तत्त्वचर्चा के क्षेत्र में भी अब हमें गुरुदेवश्री जैसी गहराई में उतरना होगा। सरलता के व्यामोह में यदि हम अब भी हल्की-फुल्की चर्चा ही करते रहे तो फिर गुरुदेवश्री ने जो अलौकिक मार्ग बताया है, जो सूक्ष्म तत्त्व समझाया है, उसकी चर्चा कौन करेगा, उनका उद्घाटन कौन करेगा? क्या वे सब रहस्य फिर रहस्य बनकर रह जावेंगे। नहीं, ऐसा नहीं होना चाहिए।