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बिखरे मोती निःशुल्क भोजन व आवास प्राप्त होने पर भी प्रतिभाशाली छात्र क्यों नहीं मिलते, इसकी तह में जाते हैं तो पता चलता है कि जैनदर्शन के अध्ययन में उन्हें कोई अच्छा भविष्य नजर नहीं आता। जब वे वर्तमान पण्डितों की दशा देखते हैं तो एकदम निराश हो जाते हैं । जहाँ एक कारण आर्थिक भविष्य की अनिश्चितता है तो दूसरा कारण यह भी है कि उन्हें वहाँ कोई उत्साहवर्द्धक आध्यात्मिक वातावरण प्राप्त नहीं होता, बल्कि दीन-हीन मनहूस वातावरण प्राप्त होता है । अत: जो प्रतिभाशाली छात्र आ भी जाते हैं तो टिकते नहीं, कुछ ही दिनों में छोड़-छाड़कर भाग जाते हैं। __ प्रथम कारण के निवारण के लिए तो समाज में थोड़ा बहुत चिन्तन चला भी, चल भी रहा है; पर दूसरे कारण की ओर अभी तक समाज का ध्यान नहीं जा पाया है। प्रथम कारण के निवारण के सम्बन्ध में विचार मंथन ही नहीं हुआ; अपितु उसके लिए वर्तमान विद्यालयों के कर्ता-धर्ताओं ने कुछ उपाय भी किये; पर वे एकदम असफल साबित हुए हैं।
उन्होंने जो उपाय किये, उनमें एक यह था कि जब छात्र मिलना ही बन्द हो गए तो छात्रों को कॉलेजों में पढ़ने की सुविधा प्रदान की गई कि जिससे छात्रों में आर्थिक असुरक्षा की भावना समाप्त हो। इससे तत्काल तो लाभ नजर आया; क्योंकि लौकिक शिक्षा की सुविधा और निःशुल्क निवास और भोजन के लोभ में छात्र संख्या बढ़ गई, प्रतिभाशाली छात्र भी आने लगे; पर वे अपनी प्रतिभा का उपयोग कालेजी पढ़ाई में ही करने लगे, धार्मिक पढ़ाई नाममात्र की रह गई। सूट-पेंट धारी उक्त छात्रों में जैनदर्शन के ज्ञान की कमी के साथसाथ आचरण भी जैनपद्धति के अनुकूल नहीं रहा। जब उन पर इसके लिए दबाव डाला जाने लगा तो वे अपने हितैषी गुरुओं और व्यवस्थापकों के शत्रु बन गए। परिणामस्वरूप लगभग ये सभी महाविद्यालय अशान्ति के स्थल भी बन गए।
आज तक सब कुछ मिलाकर हुआ यह कि जिस-तिस प्रकार महाविद्यालय तो चलते रहे, पर उनसे समाज को जैसे सदाचारी ठोस विद्वान चाहिए थे, मिलना बन्द हो गया। महाविद्यालय अभी भी चल रहे हैं, पर सदाचारी ठोस