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पण्डित परम्परा का भविष्य : एक सुझाव ( जैनपथप्रदर्शक, १६ जुलाई, १९७८ के अंक से )
यह
दिगम्बर जैन समाज की पण्डित परम्परा लुप्त होती जा रही है चिन्ता और यदि समय रहते उपाय नहीं किया गया तो परम्परा लुप्त हो जावेगी – यह आशंका समाज में सर्वत्र व्याप्त है । अभी-अभी इन्दौर में सम्पन्न पण्डित नाथूलालजी के अभिनन्दन समारोह के अवसर पर इस सम्बन्ध में विशेष मंथन हुआ। उनके सम्मान में प्रकाशित तीर्थंकर मासिक के विशेषांक ने भी इस समस्या पर पर्याप्त प्रकाश डाला है।
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उक्त अवसर पर संगोष्ठियों में एवं अब पत्र-पत्रिकाओं में भी इस समस्या के समाधान के लिए अनेक समाधान प्रस्तुत किये जा रहे हैं । यह एक अच्छी बात है कि समाज एक रचनात्मक दिशा में चिन्तन कर रहा है । यदि इसे भी व्यर्थ के विवाद का विषय नहीं बनाया गया और सामाजिक राजनीति का रूप नहीं दिया गया तो आशा ही नहीं विश्वास भी किया जा सकता है कि इसमें कुछ न कुछ सन्मार्ग अवश्य निकलेगा ।
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समस्या समाज में विद्वान पैदा करनेवाले महाविद्यालयों की कमी की नहीं, उसमें आने वाले प्रतिभाशाली योग्य छात्रों के प्राप्त नहीं होने की है।
एक तो पर्याप्त छात्र मिलते नहीं और जो भी मिलते हैं, वे प्रतिभाशाली या सुयोग्य नहीं होते। इसका कारण यह है कि जब छात्र आते ही बहुत कम हैं तो उनमें से चुनाव करने का तो प्रश्न ही नहीं उठता । अतः जो भी और जैसे भी मिलते हैं, विद्यालय चलाने के लिए उन्हें मना-मना कर भरती कर लिया जाता है, जिससे विद्यालय चलते तो रहते हैं, टूटने की नौबत तो नहीं आती, किन्तु वे अभीष्ट फल देने में असमर्थ रहते हैं ।