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बिखरे मोती पण्डित एवं तथाकथित नेता जागृत समाज की आवाज सुनते हैं या नहीं। सुनेंगे तो ठीक अन्यथा इनका भी वही हाल होनेवाला है जो कि तीर्थक्षेत्र कमेटी के पराजित महामंत्री का हुआ।
विवेकी (लेखक) तो बस यही चाहता है कि जागृत समाज की आवाज ये लोग सुनें और समाज में शान्ति बनी रहने दें।इनके उपदेशों, लेखों, आदेशों, अपीलों को तो जागृत समाज ने अस्वीकृत कर ही दिया; अब देखना है कि ये लोग जागृत समाज के संकेत को समझते हैं या नहीं ?
भोले भक्तों ने अपनी कल्पना के अनुसार तीर्थंकर भगवन्तों में भी भेदभाव कर डाला है। उनके अनुसार पार्श्वनाथ रक्षा करते हैं तो शान्तिनाथ शान्ति। इसीप्रकार शीतलनाथ शीतला (चेचक) को ठीक करने वाले हैं
और सिद्ध भगवान को कुष्ठरोग निवारण करने वाला कहा जाता है। ___ भगवान तो सभी वीतरागी-सर्वज्ञ, एक-सी शक्ति अनन्तवीर्य के धनी हैं, उनके कार्यों में यह भेद कैसे संभव है? एक तो भगवान कुछ करते ही नहीं, यदि करें तो क्या शान्तिनाथ पार्श्वनाथ के समान रक्षा नहीं कर सकते और पार्श्वनाथ शान्तिनाथ के समान शान्ति नहीं कर सकते? ऐसा कोई भेद तो अरहन्त-सिद्ध भगवन्तों में है नहीं।
लौकिक अनुकूलता-प्रतिकूलता अपने-अपने भावों द्वारा पूर्वोपार्जित पुण्य-पाप का फल है । भगवान का उसमें कोई कर्तृत्व नहीं है; क्योंकि वे तो कृतकृत्य हैं, वे कुछ करते नहीं, उन्हें कुछ करना शेष ही नहीं रहा, वे तो पूर्णता को प्राप्त हो चुके हैं।
भगवान को सही रूप में पहिचाने बिना सही अर्थों में उनकी उपासना की ही नहीं जा सकती। परमात्मा वीतरागी और पूर्णज्ञानी होते हैं; अत: उनका उपासक भी वीतरागता और पूर्णज्ञान का उपासक होना चाहिए। विषय-कषाय का अभिलाषी वीतरागता का उपासक हो ही नहीं सकता।
विषय-भोगों की अभिलाषा से भक्ति करने पर तीव्र कषाय होने से पापबंध ही होता है, पुण्य का बन्ध नहीं होता।
सत्य की खोज, पृष्ठ २२