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स्वयं बहिष्कृत
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समाज ने तथाकथित आदेश को अस्वीकार कर ही दिया है; पर सुना है कि उक्त प्रस्ताव के नाम पर तथाकथित पण्डित दो-चार स्थानों पर जिनवाणी का अपमान, अशान्ति एवं उपद्रव कराने की सोच रहे हैं, करा भी सकते हैं । शान्तिप्रिय स्थानीय समाज उनसे अपने स्तर पर निबट लेगी । फिर भी समस्त समाज को इनसे सावधान रहना चाहिए।
एक प्रश्न समाज में यह भी जोरों से उठ रहा है कि क्यों नहीं इन कलहप्रिय तत्त्वों का समाज द्वारा बहिष्कार कर दिया जाता । पर मेरा शान्तिप्रिय समाज से आग्रह है कि ये अपनी करतूतों से स्वयं ही बहिष्कृत से हो गये हैं। इनका बहिष्कार करना मरे को मारना है । इस पाप से समाज विरत ही रहे, तो अच्छा है।
चोर और डाकू सिर्फ धन लूटते हैं, उससे भी बड़े अपराधी जन लूटते हैं; तन लूटते हैं। पर श्रद्धा के लुटेरे धन-जन-तन तो लूटते ही हैं, साथ में जीवन भी लूट ले जाते हैं । अतः यह सत्य ही है कि श्रद्धा का लुटेरा सबसे बड़ा लुटेरा है ।
चतुर लुटेरा यह अच्छी तरह जानता है कि श्रद्धा को लूटे बिना किसी को पूरा नहीं लूटा जा सकता। श्रद्धा लूटने के लिये बहुत कुछ करना होता है। अज्ञानी होते हुए भी ज्ञान का, अत्यागी होते हुए भी त्याग का, सबकुछ रख कर भी कुछ न रखने का, सब-कुछ करते हुए भी कुछ न करने का प्रदर्शन करना पड़ता है; क्योंकि इनके बिना किसी की भी श्रद्धा को लूटना संभव नहीं है । धर्म के नाम पर ढोंग के प्रचलन का मूल केन्द्रबिन्दु यही है । सत्य की खोज, पृष्ठ ५४-५५
जबतक सहज श्रद्धालु नारी जाति शिक्षित नहीं होगी, उसे ढोंगी साधुओं और धूर्त महात्माओं से बचाना असम्भव नहीं तो कठिन अवश्य है । सत्य की खोज, पृष्ठ ६२