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________________ 108 बिखरे मोती हुआ भी यही, जहाँ एक ओर आचार्यों के नाम पर पंडितों ने आदेश निकाले । तत्काल उपाध्याय मुनि श्री विद्यानन्दजी ने समाज को ऐसा नहीं करने के लिए सावधान कर दिया और कहा बहिष्कार करनेवाले स्वयं बहिष्कृत हो जावेंगे। आचार्य विद्यासागरजी एवं समन्तभद्रजी महाराज के भी इसी प्रकार के भाव प्रसारित हुए। अब क्या करे समाज ? किन आचार्यों का आदेश माने ? समझदार समाज ने शान्तिकारक आदेशों को स्वीकार किया और एकबार फिर निहित स्वार्थियों का षड्यंत्र विफल हो गया । पूज्य आचार्यों और मुनिराजों से हमारा सानुरोध निवेदन है कि वे इन तथाकथित कलहप्रिय पण्डितों के बहकावे में न आवें, अन्यथा वे अपने समान आपकी प्रतिष्ठा को भी धूल धूसरित करे बिना नहीं छोड़ेंगे। एक अत्यन्त वृद्ध महापण्डित उपाध्याय श्री विद्यानन्दजी को लिखते हैं, वह भी सीधे नहीं अखबारों के माध्यम से कि मेरा जीवन थोड़ा है, मैं चाहता हूँ कि मरने से पूर्व सोनगढ़ पंथ को बर्बाद होते देख सकूं। विवेकी (लेखक) चाहता है कि वे शतायु हों और अपने आँखों के सामने सोनगढ़वालों द्वारा किए जा रहे वास्तविक तत्त्वप्रचार को फलता-फूलता देखें । इसीप्रकार की घटना महासभा की मीटिंग में भी हुई सुनी गई। महासमिति की मीटिंग के अवसर पर दिल्ली में जोरों से चर्चा थी कि महासभा के वरिष्ठ एवं अत्यन्त महत्त्वपूर्ण सदस्यों ने उक्त आदेश के समर्थक प्रस्ताव का डटकर विरोध किया । उनकी उपस्थिति तक वह प्रस्ताव पास भी नहीं हो सका; किन्तु जब वे चले आये तो कुछ लोगों ने उक्त प्रस्ताव पास कर लिया। जब उन्हें पता चला तो उन्होंने लिखा कि आपने यह अच्छा नहीं किया। यदि हमारा नाम इसके साथ जोड़ा तो वे समाज में उसका अपवाद निकाल देंगे। मजबूरन महासभा का पत्र तो इस बात को छिपा नहीं सका, उसने तो लिखा कि यह प्रस्ताव उनके चले जाने के बाद पास हुआ, लिखा इस तरकीब से कि जन साधारण यह न समझ सके कि उनका इससे विरोध था । अन्य पत्रों ने तो यह भी औपचारिता नहीं दिखाई।
SR No.009446
Book TitleBikhare Moti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla, Yashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2001
Total Pages232
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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