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बिखरे मोती
फिर भी जब समाज पर उनका कोई प्रभाव नहीं पड़ा तो उन्होंने एक सम्मेलन बुलाकर पहिले तो साहूजी सहित सभी गणमान्य व्यक्तियों की खूब भर्त्सना की, महासमिति का भरपूर विरोध किया, सोनगढ़ को मन-माना भला-बुरा कहा और अन्त में शांति का ढोंग करते हुए तीन माह का नोटिस दे डाला।
उनके अनुसार अब नोटिस अवधि समाप्त हो गई और अब वे उन्हें व उनके लाखों अनुयायियों को गैर दिगम्बर घोषित करने की योजनायें बना रहे हैं। वे कितने सफल होंगे, यह तो भविष्य ही बतायेगा । पर शान्तिप्रिय एकताकांक्षी समाज के लिए यह सब बातें चिन्ता का विषय अवश्य बन रही हैं।
कानजी स्वामी और उनके लाखों अनुयायी शुद्धाम्नाय के अनुसार पूजापाठ आदि करते हैं, क्षेत्रपाल पद्मावती आदि देवी-देवताओं को नहीं मानते हैं। उनके द्वारा निर्मित सभी मंदिरों में शुद्धाम्नाय के अनुसार ही प्रवृत्ति होती यह सब दिगम्बर समाज के तेरापंथ आम्नाय के अनुकूल है; वर्णीजी भी तेरापंथ आम्नाय के पोषक थे।
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यही कारण है कि विशेषकर बीसपंथियों द्वारा उनका विरोध किया जाता है । वर्णीजी का विरोध भी इसी कारण था । वर्णीजी तेरापंथ आम्नाय के गढ़ बुन्देलखण्ड के ही होने से इनकी दाल वहाँ नहीं गली । यद्यपि स्वामीजी का भी बुन्देलखण्ड में निर्बाध प्रवेश है; तथापि स्वामीजी सुदूरवर्ती सौराष्ट्रवासी होने से उनकी पकड़ बुन्देलखण्ड पर उतनी नहीं है; जितनी वर्णीजी की थी। इसका लाभ उठाकर कुछ बीसपंथी विद्वानों और मुनिराजों का प्रयत्न बुन्देलखण्ड में बीसपंथ के प्रचार का हो रहा है, कुछ तेरापंथी विद्वान भी व्यक्तिगत स्वार्थों के कारण उनके साथ हो गये हैं 1
गत वर्षों से घटित कुछ घटनाओं ने इसको एकदम उजागर कर दिया है । समस्त तेरापंथी समाज के समान स्वामीजी भी शिथिलाचार को स्वीकार नहीं करते। एक कारण यह भी बन रहा उनके विरोध का ।
स्वामीजी के कारण तेरापंथ को अभूतपूर्व बल मिला है, इस कारण भी बीसपंथी उनका विरोध कर रहे हैं ।