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अशुचिभावना : एक अनुशीलन इस देह के संयोग में जो वस्तु पलभर आयगी। वह भी मलिन मल-मूत्रमय दुर्गन्धमय हो जायगी ॥ किन्तु रह इस देह में निर्मल रहा जो आतमा ।
वह ज्ञेय है श्रद्धेय है बस ध्येय भी वह आतमा । "शरीरादि संयोग अनित्य हैं, अशरण हैं, असार हैं, साथ नहीं देते, अपने आत्मा से एकदम भिन्न हैं" - अनित्यादि भावनाओं के चिन्तन से इस पारमार्थिक सत्य से भलीभाँति परिचित हो जाने पर भी ज्ञानीजनों को रागवश भूमिकानुसार देह अत्यन्त निकटवर्ती संयोगी पदार्थ होने से देह सम्बन्धी विकल्पतरंगें उठा ही करती हैं।
देह सम्बन्धी उक्त रागात्मक विकल्पतरंगों के शमन के लिए ज्ञानीजनों द्वारा किया जानेवाला देह सम्बन्धी अशुचिता का बार-बार चिन्तन ही अशुचिभावना है। जैसा कि पण्डित दौलतरामजी कहते हैं -
"पल रुधिर राध मल थैली, कीकस वसादि तैं मैली।
नव द्वार बहैं घिनकारी, अस देह करे किम यारी॥ ___ कफ और चर्बी आदि से मैली यह देह मांस, खून एवं पीपरूपी मल की थैली है। इसके आँख, कान, नाक, मुँह आदि नौ द्वारों से निरन्तर घृणास्पद मैले पदार्थ ही बहते रहते हैं। हे आत्मन् ! तू ऐसी घृणास्पद इस देह से यारी (मित्रता, स्नेह) क्यों करता है?"
इस सन्दर्भ में पण्डित भूधरदासजी की निम्नांकित पंक्तियाँ भी द्रष्टव्य हैं -
१. छहढाला; पंचम ढाल, छन्द ८