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अशुचिभावना : एक अनुशीलन
"देह अपावन अथिर घिनावन, यामैं सार न कोई। सागर के जल सौं शुचि कीजै, तो भी शुद्ध न होई॥ सात कुधातमयी मलमूरत, चाम लपेटी सोहै। अन्तर देखत या सम जग में, अवर अपावन को है। नव मलद्वार स्त्र निशि-वासर, नाम लिए घिन आवै। व्याधि उपाधि अनेक जहाँ तहँ, कौन सुधी सुख पावै? पोषत तो दुख दोष करै अति, सोषत सुख उपजावै। दुर्जन देह स्वभाव बराबर, मूरख प्रीति बढ़ावै॥ राचन जोग स्वरूप न याको, विरचन जोग सही है। यह तन पाय महातप कीजे, यामैं सार यही है। यह देह अत्यन्त अपवित्र है, अस्थिर है, घिनावनी है, इसमें रंचमात्र भी सार नहीं है, सागरों के जल से धोये जाने पर भी शुद्ध होनेवाली नहीं है। चमड़े में लिपटी शोभायमान दिखनेवाली यह देह सात कुधातुओं से भरी हुई मल की मूर्ति ही है; क्योंकि अन्तर में देखने पर पता चलता है कि इसके समान अपवित्र अन्य कोई पदार्थ नहीं है। __ इसके नव द्वारों से दिन-रात ऐसा मैल बहता रहता है, जिसके नाम लेने से ही घृणा उत्पन्न होती है। जिसे अनेक व्याधियाँ और उपाधियाँ निरन्तर लगी रहती हैं, उस देह में रहकर आजतक कौन बुद्धिमान सुखी हुआ है? ___ इस देह का स्वभाव दुर्जन के समान है; क्योंकि इसमें भी दुर्जन के समान पोषण करने पर दुःख और दोष उत्पन्न होते हैं और शोषण करने पर सुख उत्पन्न होता है। फिर भी यह मूर्ख जीव इससे प्रीति बढ़ाता है।
इसका स्वरूप रमने योग्य नहीं है, अपितु यह छोड़ने योग्य ही है; अत: हे भव्य प्राणियों ! इस मानव तन को पाकर महातप करो; क्योंकि इस नरदेह पाने का सार आत्महित कर लेने में ही है।"
उक्त छन्दों में देह के अशुचि स्वरूप का वैराग्योत्पादक चित्रण कर अन्त में यही कहा गया है कि 'अस देह करे किम यारी' अर्थात् ऐसी अशुचि देह १. पार्श्वपुराण, पृष्ठ ३४-३५