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अशुचिभावना : एक अनुशीलन चेतना का वास है दुर्गन्धमय इस देह में। शुद्धातमा का वास है इस मलिन कारागेह में ॥ इस देह के संयोग में जो वस्तु पलभर आयगी।
वह भी मलिन मल-मूत्रमय दुर्गन्धमय हो जायगी ॥३॥ इस दुर्गन्धमय शरीर में चैतन्य भगवान रहते हैं, इस मैली-कुचैली जेल में शुद्धात्मा का आवास है। इस देह की स्थिति तो ऐसी है कि पवित्र से भी पवित्र जो वस्तु इस मलिन देह के संयोग में एक क्षण को भी आवेगी; वह भी मलिन हो जावेगी, मल-मूत्र-मय हो जावेगी, दुर्गन्धमय हो जावेगी।
किन्तु रह इस देह में निर्मल रहा जो आतमा । वह ज्ञेय है श्रद्धेय है बस ध्येय भी वह आतमा ॥ उस आतमा की साधना ही भावना का सार है।
ध्रुवधाम की आराधना आराधना का सार है ॥४॥ किन्तु आश्चर्य की बात तो यह है कि इस महामलिन देह में रहकर भी यह भगवान आत्मा सदा निर्मल ही रहा है। यह निर्मल आत्मा ही परमज्ञेय है - परमशुद्धनिश्चय नय का विषय है, परमभावग्राहीशुद्धद्रव्यार्थिक नय का विषय है; श्रद्धेय है - दृष्टि का विषय है और वह भगवान आत्मा ही ध्यान का विषय है, ध्येय है। अशुचिभावना का सार उक्त भगवान आत्मा की साधना ही है और ध्रुवधाम निज भगवान आत्मा की आराधना ही आराधना का सार है।
हे प्रभो! कितने आश्चर्य की बात है, जिन भोगों को तुच्छ जानकर आपने स्वयं त्याग किया है, वे उन्हें ही इष्ट मान रहे हैं और आपसे ही उनकी मांग कर रहे है, आपको ही उनका दाता बता रहे हैं।
हे प्रभो! आपके अनन्तज्ञान की महिमा तो अनन्त है ही, पर अज्ञानियों के अज्ञान की महिमा भी अनन्त है, अन्यथा वे इसप्रकार व्यवहार क्यों करते?
- तीर्थंकर महावीर और उनका सर्वोदय तीर्थ, पृष्ठ ७८