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एकत्वभावना : एक अनुशीलन
ज्ञानीजन तो पुकार - पुकार कर कहते रहे हैं - "जीव तू भ्रमत सदैव अकेला, संग साथी नहीं कोई तेरा ॥ टेक ॥ अपना सुख-दुख आपहि भुगते, होत कुटुम्ब न भेला । स्वार्थ भयँ सब बिछरि जात हैं, विघट जात ज्यों मेला ॥
रक्षक कोई न पूरन है फूटत पार बँधत नहिं
जीव तू भ्रमत सदैव अकेला ॥ १ ॥ जब, आयु अन्त की बेला । जैसे, दुद्धर जल को ठेला ॥
जीव तू भ्रमत सदैव अकेला ॥ २ ॥ तन-धन-जीवन विनश जात ज्यों, इन्द्रजाल का खेला । 'भागचन्द' इमि लखकरि भाई, हो सतगुरु का चेला ॥ जीव तू भ्रमत सदैव अकेला ॥ ३ ॥
इस सब चिन्तन का सार यही है कि पर का साथ खोजने के व्यर्थ विकल्पों से विरत हो; ज्ञान के घनपिण्ड, आनन्द के कन्द, शान्ति के सागर, निज परमात्मतत्त्व को पहिचानकर उसी में लीन रहो, संतुष्ट रहो, तृप्त रहो । सुखी होने का एकमात्र यही उपाय है।
एकत्व - विभक्त आत्मा के प्रतिपादक ग्रन्थाधिराज समयसार में आचार्य कुन्दकुन्द आदेश देते हैं, आशीर्वाद देते हैं कि -
" एदम्हि रदो णिच्चं संतुठ्ठो होहि णिच्चमेदम्हि । एदेण होहि तित्तो होहदि तुह उत्तमं सोक्खं ॥ "
हे आत्मन् ! तू इस ज्ञानानन्द स्वभावी आत्मा में ही नित्य प्रीतिवन्त हो, इसमें ही नित्य सन्तोष को प्राप्त हो और इससे ही तृप्त हो तो तुझे उत्तम सुख प्राप्त होगा । "
आचार्य भगवन्तों का मात्र यही आदेश है, यही उपदेश है, यही सन्देश है कि सम्पूर्ण जगत से दृष्टि हटाकर एकमात्र अपने आत्मा की साधना करो, आराधना करो; उसे ही जानो, पहिचानो; उसी में जम जावो, उसमें ही रम
१. समयसार, गाथा २०६