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________________ बारहभावना : एक अनुशीलन जावो, उसमें ही समा जावो; इससे ही अतीन्द्रियानन्द की प्राप्ति होगीपरमसुखी होने का एकमात्र यही उपाय है। पर को छोड़ने के लिए, पर से छूटने के लिए इससे भिन्न कुछ भी करने की आवश्यकता नहीं है; क्योंकि पर तो छूटे हुए ही हैं। वे तेरे कभी हुए ही नहीं हैं ; तूने ही उन्हें अज्ञानवश अपना मान रखा था, अपना जान रखा था और उनसे राग कर व्यर्थ ही दुःखी हो रहा था। तू अपने में मगन हुआ तो वे छूटे हुए ही हैं। इसीलिए तो करुणासागर कार्तिकेय स्वामी समझाते हैं - "सव्वायरेण जाणह इक्कं सरीरदो भिण्णं । जम्हि दु मुणिदे जीवे होदि असेसंखणे हेयं ॥ पूरे प्रयत्न से शरीर से भिन्न इस जीव को ही जानो। उसके जान लेने पर शरीरादि समस्त बाह्य पदार्थ एक क्षण में हेय हो जाते हैं।" पर के साथ के अभिलाषी प्राणियो! तुम्हारा सच्चा साथी आत्मा का अखण्ड एकत्व ही है, अन्य नहीं। यह एकत्व तुम्हारा सच्चा साथी ही नहीं, ऐरावत हाथी भी है। इसका आश्रय ग्रहण करो, इस पर चढ़ो और स्वयं अन्तर के धर्मतीर्थ के प्रवर्तक तीर्थंकर बन जावो; धर्म की धवल पाण्डुक शिला पर तुम्हारा जन्माभिषेक होगा, पावन परिणतियों की प्रवाहित अजस्र धारा में स्नान कर तुम धवल निरंजन हो जाओगे। सारा लोक निज अखण्ड एकत्व के आश्रय से उत्पन्न धवल निरंजन पावन परिणतियों के अजस्र प्रवाह में निमग्न हो, आनन्दमग्न हो - इस पावन भावना के साथ विराम लेता हूँ। बुद्धि भी भवितव्य का अनुसरण करती है। जब खोटा समय आता है तो बड़े-बड़े बुद्धिमानों की बुद्धि पर भी पत्थर पड़ जाते हैं। ___- आप कुछ भी कहो, पृष्ठ ६४ १. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, गाथा ७९
SR No.009445
Book TitleBarah Bhavana Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages190
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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