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तिर्यंच मनुज कुदेव होकर द्रव्यलिंगी दुःख लहें। पर भावलिंगी सुखी हों आनन्दमय अपवर्ग में॥१००। अशुद्धभावों से छियालिस दोष दूषित असन कर। तिर्यंचगति में दुख अनेकों बार भोगे विवश हो॥१०॥ अतिगृद्धता अर दर्द से रे सचित्त भोजन पान कर। अति दुःख पाये अनादि से इसका भी जरा विचार कर॥१०२॥ अर कंद मूल बीज फूल पत्र आदि सचित्त सब। सेवन किये मदमत्त होकर भ्रमे भव में आजतक॥१०॥ विनय पंच प्रकार पालो मन वचन अर काय से। अविनयी को मुक्ति की प्राप्ति कभी होती नहीं॥१०४||
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