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जल में रहे चिरकाल पर पत्थर कभी भिदता नहीं। त्यों परीषह उपसर्ग से साधु कभी भिदता नहीं॥९५॥ भावना द्वादश तथा पच्चीस व्रत की भावना। भावना बिन मात्र कोरे वेष से क्या लाभ है।।९६।। है सर्वविरती तथापि तत्त्वार्थ की भा भावना। गुणथान जीवसमास की भी तू सदा भा भावना॥९७॥ भयंकर भव-वन विर्षे भ्रमता रहा आशक्त हो। बस इसलिए नवकोटि से ब्रह्मचर्य को धारण करो॥९८॥ भाववाले साधु साधे चतुर्विध आराधना। पर भाव विरहित भटकते चिरकाल तक संसार में॥९९॥
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