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ऐसे अनन्ते भव धरे नरदेह के नख केश सब । यदि करे कोई इकट्ठे तो ढेर होवे मेरु सम ||२०|| परवश हुआ यह रह रहा चिरकाल से आकाश में। थल अनल जल तरु अनिल उपवन गहन वन गिरि गुफा में ॥ २१ ॥ पुद्गल सभी भक्षण किये उपलब्ध हैं जो लोक में। बहु बार भक्षण किये पर तृप्ति मिली न रंच भी ॥ २२ ॥ त्रैलोक्य में उपलब्ध जल सब तृषित हो तूने पिया | पर प्यास फिर भी ना बुझी अब आत्मचिंतन में लगो ॥ २३ ॥ जिस देह में तू रम रहा ऐसी अनन्ती देह तो । मूरख अनेकों बार तूने प्राप्त करके छोड़ दीं ||२४||
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