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हो ज्ञानगर्भित विषयसुख में रमें जो जन योग से । उस मंदबुद्धि कापुरुष के ज्ञान का कुछ दोष ना ॥१०॥ जब ज्ञान, दर्शन, चरण, तप सम्यक्त्व से संयुक्त हो। तब आतमा चारित्र से प्राप्ति करे निर्वाण की ॥११॥ शील रक्षण शुद्ध दर्शन चरण विषयों से विरत । जो आत्मा वे नियम से प्राप्ति करें निर्वाण की ॥१२॥ सन्मार्गदर्शी ज्ञानि तो है सुज्ञ यद्यपि विषयरत । किन्तु जो उन्मार्गदर्शी ज्ञान उनका व्यर्थ है ।।१३।। यद्यपि बहुशास्त्र जाने कुमत कुश्रुत प्रशंसक । रे शीलव्रत से रहित हैं वे आत्म-आराधक नहीं ॥१४॥
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