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दर्शन रहित यदि वेष हो चारित्र विरहित ज्ञान हो । संयम रहित तप निरर्थक आकास-कुसुम समान हो ॥५॥ दर्शन सहित हो वेश चारित्र शुद्ध सम्यग्ज्ञान हो । संयम सहित तप अल्प भी हो तदपि सुफल महान हो ॥६॥ ज्ञान हो पर विषय में हों लीन जो नर जगत में । रे विषयरत वे मूढ़ डोलें चार गति में निरन्तर ॥७॥ जानने की भावना से जान निज को विरत हों । रे वे तपस्वी चार गति को छेदते संदेह ना ।।८।। जिसतरह कंचन शुद्ध हो खड़िया-नमक के लेप से। बस उसतरह हो जीव निर्मल ज्ञान जल के लेप से ॥९॥
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