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अनेकान्त और स्याद्वाद
करती है कि मैं नहीं जानता और कुछ भी होगा। जब कि स्याद्वाद, संभावनावाद नहीं; निश्चयात्मक ज्ञान होने से प्रमाण है। 'भी' में से यह अर्थ नहीं निकलता कि इसके अतिरिक्त क्या है, मैं नहीं जानता; बल्कि यह निकलता है कि इस समय उसे कहा नहीं जा सकता अथवा उसके कहने की आवश्यकता नहीं है। अपूर्ण को पूर्ण न समझ लिया जाय इसके लिए भी' का प्रयोग है। दूसरे शब्दों में जो बात अंश के बारे में कही जा रही है, उसे पूर्ण के बारे में न जान लिया जाय - इसके लिए 'भी' का प्रयोग है, अनेक मिथ्या एकान्तों के जोड़-तोड़ के लिए नहीं। ___ इसीप्रकार 'ही' का प्रयोग आग्रही' का प्रयोग न होकर इस बात को स्पष्ट करने के लिए है कि अंश के बारे में जो कहा गया है, वह पूर्णतः सत्य है। उस दृष्टि से वस्तु वैसी ही है, अन्य रूप नहीं।
समन्तभद्रादि आचार्यों ने पद-पद पर 'ही' का प्रयोग किया है। 'ही' के प्रयोग का समर्थन श्लोकवार्तिक में इसप्रकार किया है -
"वाक्येऽवधारणं तावदनिष्ठार्थ निवृत्तये ।
कर्तव्यमन्यथानुक्तसमत्वात्तस्य कुत्रचित् ॥ वाक्यों में 'ही' का प्रयोग अनिष्ट अर्थ की निवृत्ति और दृढ़ता के लिए करना ही चाहिए, अन्यथा कहीं-कहीं वह वाक्य नहीं कहा गया सरीखा समझा जाता है।"
युक्त्यनुशासन श्लोक ४१-४२ में आचार्य समन्तभद्र ने भी इसीप्रकार का भाव व्यक्त किया है।
इस सन्दर्भ में सिद्धान्ताचार्य पण्डित कैलाशचन्दजी लिखते हैं -
"इसी तरह वाक्य में एवकार (ही) का प्रयोग न करने पर भी सर्वथा एकान्त को मानना पड़ेगा; क्योंकि उस स्थिति में अनेकान्त का निराकरण १. सदेव सर्वं को नेच्छेत् स्वरूपादि चतुष्टयात् ।। ___ असदेव विपर्यासान चेन व्यवतिष्ठते ॥ - आप्तमीमांसा, श्लोक १५ २. श्लोकवार्तिक, अ. १, सूत्र ६, श्लोक ५३