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अनेकान्त और स्याद्वाद
अवश्यम्भावी है । जैसे- 'उपयोग लक्षण जीव का ही है ' इस वाक्य में एवकार (ही) होने से यह सिद्ध होता है कि उपयोग लक्षण अन्य किसी का न होकर जीव का ही है; अतः यदि इसमें से 'ही' को निकाल दिया जाय तो उपयोग अजीव का भी लक्षण हो सकता है।"
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प्रमाण वाक्य में मात्र स्यात् पद का प्रयोग होता है, किन्तु नय वाक्य में स्यात् पद के साथ-साथ एव (ही) का प्रयोग भी आवश्यक है । ' 'ही' सम्यक् एकान्त की सूचक है और 'भी' सम्यक् अनेकान्त की ।
यद्यपि जैनदर्शन अनेकान्तवादी दर्शन कहा जाता है; तथापि यदि उसे सर्वथा अनेकान्तवादी मानें तो यह भी तो एकान्त हो जायेगा । अत: जैनदर्शन में अनेकान्त में भी अनेकान्त को स्वीकार किया गया है। जैनदर्शन सर्वथा न एकान्तवादी है न सर्वथा अनेकान्तवादी । वह कथंचित् एकान्तवादी और कथंचित् अनेकान्तवादी है। इसी का नाम अनेकान्त में अनेकान्त है ।
कहा भी है
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"अनेकान्तोऽप्यनेकान्तः प्रमाणनयसाधनः । अनेकान्तः प्रमाणात्ते तदेकान्तोऽर्पितान्नयात् ॥
प्रमाण और नय हैं साधन जिसके, ऐसा अनेकान्त भी अनेकान्त स्वरूप है; क्योंकि सर्वांशग्राही प्रमाण की अपेक्षा वस्तु अनेकान्तस्वरूप एवं अंशग्राही नय की अपेक्षा वस्तु एकान्तरूप सिद्ध है ।"
जैनदर्शन के अनुसार एकान्त भी दो प्रकार का होता है और अनेकान्त भी दो प्रकार का यथा सम्यक् एकान्त और मिथ्या एकान्त, सम्यक् अनेकान्त और मिथ्या अनेकान्त। निरपेक्ष नय मिथ्या एकान्त है और सापेक्ष नय सम्यक् एकान्त है तथा सापेक्ष नयों का समूह अर्थात् श्रुत- प्रमाण सम्यक् अनेकान्त है और निरपेक्ष नयों का समूह अर्थात् प्रमाणाभास मिथ्या अनेकान्त है 1
१. जैनन्याय, पृष्ठ ३००
२. नयचक्र, पृष्ठ १२९ ३. स्वयंभूस्तोत्र, श्लोक १०३