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दशकरण चर्चा
विवक्षित कर्म की आबाधाकाल के समय से पहले, पूर्व काल में बंधे हुए कर्मों की सत्ता भी है, निषेकरचना भी है और उनका यथाकाल उदयादि कार्य भी होते ही रहेंगे।
जो नवीन कर्म का बंध हो रहा है और जिसकी आबाधाकाल की चर्चा चल रही है, उस कर्म की सत्ता और निषेक रचना तो आबाधाकाल के समय ही रहती है। इसलिए आबाधाकाल रूप सत्ता और उपरितन विभाग में स्थित सत्ता - ऐसे सत्ता (सत्त्व / कर्म का अस्तित्व) के दो भेद नहीं हैं।
वैसे सत्ता में पड़ा हुआ सर्व कर्म भी उदयकाल के बिना मिट्टी के ढेले के समान ही है; तथापि उसमें निषेक रचना होने से आज नहीं तो कल क्रमशः उदयकाल आने पर फल देने की पात्रता है।
६. प्रश्न:- आबाधाकाल में कर्म की निषेकरचना होती नहींइसका अर्थ जब जिस विवक्षित कर्म का आबाधाकाल है, तब उस विवक्षित कर्म की उस आबाधाकाल में सत्ता भी नहीं है। जब से निषेकों का उदय प्रारंभ होगा वहीं से (उस समय से) ही चारों प्रकार के बंध विद्यमान है अर्थात् कर्म की सत्ता मानना क्या उचित हैं?
उत्तर :- आपका कहना सही है।
आप गोम्मटसार कर्मकाण्ड गाथा ९१९ को पढ़ोगे तो सब समझ में आयेगा; उसमें कहा है
आबाहूणियकम्मट्ठदी णिसेगो दु सत्तकम्माणं । आउस णिसेगो पुण सगट्ठिदी होदि णियमेण ।। टीका - आयु बिना सात कर्मों की जितनी उत्कृष्ट स्थिति है, उसमें से आबाधाकाल घटाने पर जो शेष रहे, उस काल के समयों का जो प्रमाण वही निषेकों का प्रमाण जानना । तथा आयुकर्म की जितनी स्थिति हो, उसके समयों का जो प्रमाण, वही निषेकों का प्रमाण जानना; क्योंकि आयु की बाधा पूर्वभव की आयु में व्यतीत हो जाती है।
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3D Kala Ananji Adhyatmik Duskaran Book
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बंधकरण आगमाश्रित चर्चात्मक प्रश्नोत्तर अ. १
उदाहरण- मिथ्यात्व दर्शनमोहनीय कर्म की स्थिति ७० कोडाकोडी सागर की है; उसका आबाधाकाल ७ हजार वर्ष होता है । अर्थात् मिथ्यात्व कर्म का नवीन बंध होने पर ७ हजार वर्षों में निषेक रचना नहीं होती । ७ हजार वर्ष के बाद के स्थितिबंध की निषेक रचना बंध के समय ही होती है।
ब्र. जिनेन्द्र वर्णीजी ने आबाधाकाल का खुलासा निम्नप्रकार किया है -
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"कर्म, बंधने के पश्चात् जितने समय तक आत्मा को किसी प्रकार की बाधा नहीं पहुँचाता, अर्थात् उदय में नहीं आता, यानी बद्धकर्म अपना शुभाशुभ फल चरवाने या फल का वेदन कराने को उद्यत नहीं होता, उतने काल को आबाधाकाल कहते हैं।
निष्कर्ष यह है कि कर्म का बन्ध होते ही उसमें विपाक-प्रदर्शन की शक्ति नहीं पैदा हो जाती। यह होती है एक निश्चित काल सीमा के पश्चात् ही । कर्म की यह अवस्था आबाधा कहलाती है।
बन्ध और उदय के अन्तर (मध्य) का जो काल है, वह आबाधाकाल है।"
७. प्रश्न :- समुद्घात किसे कहते हैं? वह कितने प्रकार का है? - यह बताकर क्या किसी भी समुद्घात के काल में जीव को नया कर्म का बंध भी होता है। यह स्पष्ट कीजिए ?
उत्तर :- मूल शरीर को न छोड़कर तैजस-कार्माणरूप उत्तर देह के साथ जीव-प्रदेशों के शरीर से बाहर निकलने को समुद्घात कहते हैं।
समुद्घात सात प्रकार का होता है- वेदना, कषाय, विक्रिया, मारणान्तिक, तैजस आहारक और केवली समुद्घात ।
हाँ, समुद्घात के काल में भी समुद्घात करनेवाले जीव को नया कर्म का बंध होता ही रहता है। इतनी विशेषता समझना चाहिए कि दसवें गुणस्थान पर्यन्त तो साम्परायिक आस्रव के कारण कर्म का बंध होता है; क्योंकि दसवें गुणस्थान पर्यन्त कषाय परिणाम रहता है।
१. कर्म सिद्धान्त (ब्र. जिनेन्द्र वर्णी) पृ. ९४, ९५