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बंधकरण आगमाश्रित चर्चात्मक प्रश्नोत्तर अ.१
दशकरण चर्चा दूसरा विषय यह भी है कि 'दशकरण' यह विषय करणानुयोग का है और करणानुयोग के सभी विषयों की परीक्षा नहीं हो सकती। इसलिए करणानुयोग को अहेतुवाद आगम भी कहा है। अतः हमारा यही कर्तव्य है कि आचार्यों ने जो कुछ भी कहा है, उसे यथार्थ रूप से जानना एवं स्वीकारना है।
३. प्रश्न :- आबाधाकाल भी कर्म की एक अवस्था है, इसलिए आबाधाकाल को भी करण में लेकर करणों को ११ कहना चाहिए था; आबाधाकाल को करणों में क्यों नहीं लिया?
उत्तर :- पहले हमें आबाधाकाल की परिभाषा स्पष्ट समझना आवश्यक है। आचार्य नेमिचन्द्र ने गोम्मटसार कर्मकाण्ड में कहा है -
कम्मसरूवेणागय दव्वं ण य एदि उदयरूवेण । रूवेणुदीरणस्स य आबाहा जाव ताव हवे ।।९१४ ।। "कर्मस्वरूप से परिणत हुआ कार्माण द्रव्य, जब तक उदय या उदीरणारूप नहीं होता तब तक का काल आबाधाकाल कहलाता है।" - एक कोडाकोडी सागर स्थितिबंध का १०० वर्ष प्रमाण उदय
आबाधाकाल होता है, यह नियम है। - गो.क. गाथा ९१५ - इसीप्रकार अन्य कर्मों का उदय आबाधाकाल निकालना चाहिए।
आपका मूल प्रश्न तो आबाधाकाल को अलगरूप से/कर्म की अवस्थारूप से क्यों नहीं लिया? यह है।
आप आबाधाकाल की परिभाषा को सूक्ष्मता से जानने का प्रयास करोगे तो सब सहज समझ में आयेगा।
परिभाषा के प्रारम्भ में ही आया है कर्मस्वरूप से परिणत हुआ कार्माण द्रव्य' इसका अर्थ जो जीव के साथ कर्मस्वरूप से परिणत हुआ है, उसकी बात चल रही है - अर्थात् जो कर्मरूप से जीव के साथ बंध चुका है, उसकी चर्चा चल रही है - अर्थात् बंधकरण की ही बात
है। इसका अर्थ बंधकरण में ही आबाधाकाल गर्भित है, अन्य कुछ कर्म की अवस्था नहीं है।
४. प्रश्न :- बंधकरण और आबाधाकाल एक अपेक्षा से एक होने पर भी कुछ अंतर तो होगा ही - वह अंतर क्या है? ____ उत्तर :- बंधा हुआ कर्म जब तक जीव के साथ एकक्षेत्रावगाहरूप से रहता तो है; परन्तु उदय में नहीं आता तबतक के काल को आबाधाकाल कहते हैं।
स्थितिबंध में से आबाधाकाल को छोड़कर आगे के कर्मों में निषेक रचना होती है। इसलिए आबाधाकाल पूर्ण होने पर समय-समय प्रति निषेकों का उदय आता रहता है। (एक समय में उदय आनेयोग्य कर्मसमूह को निषेक कहते हैं)।
संक्षेप में हम ऐसा कह सकते हैं कि - 'निषेकरचना रहित स्थितिबंध के काल को आबाधाकाल कहते हैं।' 'आबाधाकाल को छोड़कर शेष स्थितिबंध में निषेकरचना होती है। इसका अर्थ यह हुआ - स्थितिबंधरूप बंधकरण के दो भेद होते हैं - पहला भेद आबाधारूप स्थितिबंध और दूसरा निषेकरचनारूप स्थितिबंध।
५. प्रश्न :- आबाधाकालरूप सत्ता और उदयावली के बाद में अर्थात् उपरितन विभाग में स्थित कर्मों की सत्ता में क्या कुछ अंतर भी है?
उत्तर :- आपका प्रश्न ही गलत है; क्योंकि आबाधाकालरूप सत्ता और उपरितन विभाग में स्थित कर्मों की सत्ता - ऐसे कर्म की सत्ता (सत्त्व) के दो भेद है ही नहीं। जिस विवक्षित कर्म का वर्तमान में नवीन बंध हो रहा है और जिसकी आबाधा भी सुनिश्चित है, उस आबाधाकाल में नवीन कर्मों की सत्ता ही नहीं है। इसकारण से आबाधाकाल के बाद ही प्रत्येक समय में निषेकों की रचना होती है।
जहाँ निषेकों की रचना न हों वहाँ उन कर्मों की सत्ता कैसी होगी?
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