________________
दशकरण चर्चा
उपशांतमोह, क्षीणमोह और सयोगकेवली गुणस्थान में मात्र ईर्यापथ आस्रव होता है। केवली समुद्घात के काल में भी ईर्यापथास्रव होता है। बंध एक समय का होता है, जो गौण है।
हमें सामान्य नियम यह समझना आवश्यक है कि जब तक मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद कषाय एवं योग परिणाम रहते हैं, तबतक तो जीव कुछ भी करता रहे तो भी जीव को नया कर्म का बंध होता ही रहता है।
८. प्रश्न :- विशेष पुरुषार्थी दसवें गुणस्थानवर्ती, भावलिंगी मुनिराज को भी ध्यानावस्था (शुद्धोपयोग) होने पर भी नया कर्म का बंध क्यों होता है?
उत्तर :- अरे भाई! ऊपर के प्रश्न के उत्तर में ही बताया है कि जब तक जीव को मिथ्यात्व से लेकर सूक्ष्म लोभ कषाय पर्यन्त के मोह परिणाम होते हैं, तब तक नया कर्म का बंध होता ही रहता है। मुनिराज को ध्यानावस्था में शुद्धोपयोग होने पर भी सातवें गुणस्थान से दसवें गुणस्थान पर्यन्त अबुद्धिपूर्वक कषाय परिणाम होने से नया कर्म का बंध होता ही है।
९. प्रश्न :- ध्यानावस्था/शुद्धोपयोग अर्थात् शुद्धात्मा में लीनतारूप सूक्ष्मसाम्पराय चारित्र होने पर भी कषाय परिणाम कैसे पाये जाते हैं?
उत्तर :- कषायादि मोहरूप परिणाम दो प्रकार के होते हैं - १. बुद्धिपूर्वक कषाय परिणाम और २. अबुद्धिपूर्वक कषाय परिणाम ।
ध्यानावस्था में अथवा नींद में अबुद्धिपूर्वक कषाय परिणाम होते रहते हैं। अतः नया कर्म का बंध भी कषाय से होता ही रहता है।
अपने या दूसरे के ज्ञान में स्पष्ट जानने में आनेवाले कषाय को बुद्धिपूर्वक कषाय कहते हैं। और अपने या दूसरे के ज्ञान में जो कषाय परिणाम स्पष्ट जानने में नहीं आते, उन्हें अबुद्धिपूर्वक कषाय परिणाम कहते हैं।
बंधकरण आगमाश्रित चर्चात्मक प्रश्नोत्तर अ.१
निद्रा के काल में, विग्रहगति में, बेहोशी अवस्था में भी अबुद्धिपूर्वक कषाय परिणाम होते हैं; इसलिए नया कर्म का बंध भी होता ही रहता है।
१०. प्रश्न :- बंधकरण के कारण तो मोहादि दुःखद विकारी परिणाम हैं। बंधकरण संसाररूप है, क्या उनको जानने से भी हमें कुछ लाभ हो सकता है क्या?
उत्तर :- बंधकरण को जानने से भी जीव को लाभ तो होता ही है। जिससे कुछ भी लाभ न हो, उनको हमें जानना भी नहीं चाहिए।
वीतराग वाणी (सच्चे शास्त्र) में ऐसा कोई भी कथन नहीं होता, जिसको जानने से कुछ भी लाभ न हो।
१. जैसे संसारी जीव को दुःख होता है, वही दुःख जीव के सुखस्वभाव की सिद्धि करता है, वैसे बंधकरण को जानने से ही अबंध स्वभाव का अर्थात् अनादिकाल से मैं मोक्षस्वरूप ही हूँ, ऐसा दृढ़ निर्णय होता है।
२. आज जो अनंत जीव सिद्धालय में सिद्ध परमेष्ठीरूप से हैं, वे जीव भी हम जैसे ही संसार में कर्मों से बंधे हुए थे, दुःखी थे; तथापि विशिष्ट पुरुषार्थ से वे जैसे कर्मों से रहित होकर मुक्त हो गये हैं/अनन्त सुखी हो गये हैं; वैसे मैं भी पुरुषार्थपूर्वक सिद्ध बन सकता हूँ, ऐसा विश्वास उत्पन्न होता है।
३.बंधकरण नाना जीवों की अपेक्षा से अनादि-अनन्त है। अभव्य जीव के लिए भी बंधकरण नियम से अनादि-अनन्त ही होता है; तथापि मेरे लिए बंधकरण अनादि होने पर भी अनन्त नहीं हो सकता, वह सान्त ही हैं; ऐसा निर्णय भव्यों को हो सकता है।
११. प्रश्न :- आबाधाकाल को जानने से हमें क्या लाभ होता है?
उत्तर :- 1. पापमय परिणामों से पाप कर्म का बंध होता है और पुण्यमय परिणामों से पाप-पुण्यरूप दोनों ही कर्मों का बंध होता है; यह कर्मबंध का सामान्य नियम है।
Aajladkyaank DukeBook
(10)