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दशकरण चर्चा
आगमाश्रित चर्चात्मक प्रश्नोत्तर (निधत्तिकरण-निकाचितकरण) अ.८
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अर्थ - जो उदयावली को प्राप्त करने में समर्थ नहीं होता है ऐसा उपशांतकरणद्रव्य तथा जो संक्रमण अथवा उदय को प्राप्त होने में समर्थ नहीं है ऐसा निधत्तिकरण द्रव्य एवं जो उदयावली, संक्रमण, उत्कर्षण और अपकर्षण को प्राप्त होने में समर्थ नहीं है ऐसा निकाचित्तकरण द्रव्य हैं - ये तीनों ही प्रकार के करणद्रव्य अपूर्वकरण गुणस्थान पर्यन्त ही पाए जाते हैं, क्योंकि अनिवृत्तिकरण गुणस्थान में प्रवेश करने के प्रथम समय में ही सभी कर्मों के ये तीनों करण युगपत व्युच्छिन्न हो जाते हैं।
अर्थात् प्रवेश करने के पहले ही यहाँ मुख्यरूप से यह समझना आवश्यक है कि जब कर्मभूमिज मनुष्य मुनि अवस्था को स्वीकार करके अनिवृत्तिकरण नामक नौंवे गुणस्थान में प्रवेश करते हैं तो तत्काल (आठवें गुणस्थान के अन्तिम समय में कहो अथवा नौवें गुणस्थान के पहले समय में) कर्मों का निधत्ति व निकाचितपना नष्ट होता है और क्षपक मुनिराजों का अरहंत-सिद्ध बनने का कार्य अतितीव्र गति से प्रारंभ होता है।
इस पुरुषार्थमूलक अंश का ज्ञान सामान्य मनुष्य को भी होना चाहिए। शास्त्र के जानकारों की यह बहुत बड़ी जिम्मेदारी है। ___जो कर्म को ही सामर्थ्यशाली सिद्ध करना चाहते हैं, वे कर्म के निधत्ति-निकाचितपने का ज्ञान तो जनसामान्य को कराते हैं; लेकिन उन कर्मों को नष्ट करने का सामर्थ्य भी जीव में है; इस विषय का कथन करना छोड़ देते हैं यह उचित नहीं है।
जिनवाणी का कथन तो मुख्यरूप से जीव को ऊपर उठाने के लिए, पुरुषार्थी बनाने के लिए करना होता है, करना भी चाहिए।
जो उपदेश जीव को अपनी हीन अवस्था से निकालकर उच्च अवस्था पर्यन्त पहुँचाता है, वही जिनधर्म का उपदेश है। ___ अतः जिनवाणी का कथन करनेवाला वक्ता हो अथवा जनसामान्य पर्यन्त लेखन के माध्यम से सर्वज्ञ भगवान की वाणी को पहुँचानेवाला लेखक हो, उसका प्रमुख कर्त्तव्य तो यही है कि श्रोता अथवा पाठक उत्साह के साथ अपने जीवन को प्रगतिशील बनावें। जीव को अर्थात् स्वयं को सामर्थ्य संपन्न स्वीकार करें। अपने को कर्मों का गुलाम न समझें ऐसा ही कथन और लेखन करना आवश्यक है।
अनिवृत्तिकरण नामक नौंवे गुणस्थान के पहले-पहले पुण्यरूप अथवा पापरूप निधत्ति-निकाचितपना रहना बात अलग है और कर्मों के निधत्ति-निकाचितपने के कारण जीव कर्मों में कुछ कर ही नहीं सकता, कर्म तो बलवान ही है, जीव को किए हुए पुण्य-पाप का फल भोगना ही अनिवार्य है, जीव, कर्मों के सामने कुछ नहीं कर सकता है; ऐसा एकान्त रूप से कथन करना बात अलग है। ___इसीलिए द्रव्यानुयोग के माध्यम से प्रत्येक जीव, स्वभाव से भगवान ही है, कमजोरी से अथवा पर्यायगत पात्रता से वर्तमान पर्याय में तात्कालिक विभाव भाव होते हैं, उसमें कर्म निमित्त है। इसतरह प्रत्येक जीव को अपने मूल स्वभाव का व पर्यायगत पात्रता का ज्ञान करना एवं कराना चाहिए।
इसकारण आत्मस्वभाव का/शुद्धात्मस्वभाव का ज्ञान करानेवाले समयसार शास्त्र को ग्रंथाधिराज कहा है, जो कि परम सत्य है। आचार्य योगीन्दुदेव ने तो अप्पा सो परमप्पा, आत्मा ही परमात्मा है, ऐसा उपदेश दिया है।
२. प्रश्न :- निधत्ति, निकाचितकरण को नहीं मानेंगे तो क्या आपत्तियाँ आयेंगी?
१. 'सव्वेसि कम्माणमणियट्टिगुणट्ठाणपवेसपढसमए चेव एदाणि तिण्णि वि करणाणि अक्कमेण
वोच्छिण्णाणि त्ति भणिदं होइ।' जयधवल पु. १३, पृ. २३१
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