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अधिकार नौवाँ - दसवाँ
९-१०. निधत्तिकरण एवं निकाचितकरण आगमाश्रित
चर्चात्मक प्रश्नोत्तर
आचार्य नेमिचन्द्र ने गोम्मटसार कर्मकाण्ड के दशकरण चूलिका अधिकार में गाथा क्रमांक ४४० में निधत्ति और निकाचित की परिभाषा दी है उसका हिन्दी अनुवाद हम नीचे दे रहे हैं - (आर्यिका आदिमतीजी)
निधत्ति - (१) जो कर्म प्रदेशाग्र (उदीरणा करके) उदय में देने के लिए अथवा अन्य प्रकृतिरूप परिणमने के लिए शक्य नहीं है, वह निधत है।
(२) जो कर्म प्रदेशाग्र निधत्तिकृत है यानि उदय में देने के लिए शक्य नहीं है, अन्य प्रकृति में संक्रान्त करने के लिए भी शक्य नहीं है; किन्तु अपकर्षण व उत्कर्षण करने के लिए शक्य है; ऐसे प्रदेशाग्र की निधत्ति संज्ञा है।
निकाचित- जो कर्म इन चारों (उदीरणा, संक्रमण, उत्कर्षण अपकर्षण) के लिए अयोग्य होकर अवस्थान की प्रतिज्ञा में प्रतिबद्ध है उसकी उस अवस्थान लक्षण पर्याय विशेष को निकाचनकरण कहते हैं।
यहाँ तक तो जो कुछ दिया वह सब शास्त्राधार से दिया है। निधत्ति और निकाचितरूप कर्म फल देकर ही नष्ट होते हैं; उन कर्मों के सामने
२. ध. पु. १६, पृष्ठ ५१६
९. ध.पु. ९, पृष्ठ २३५
३. धवला पुस्तक- ९, पृष्ठ २३६
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Ananji Adhyatmik Duskaran Book
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आगमाश्रित चर्चात्मक प्रश्नोत्तर (निधत्तिकरण-निकाचितकरण) अ. ८ १३१ जीव का कुछ नहीं चलता, कर्म का फल तो भोगना ही पड़ेगा, ऐसा कथन किया जाता है, वह जिस अपेक्षा से कहा जाता है, वह उस अपेक्षा से वहाँ के लिए सत्य ही है। इसमें हमें कुछ कहना नहीं है।
इसका स्पष्ट अर्थ करने के लिए हम यह भी समझ सकते हैं कि पांचों पांडवों को, गजकुमार मुनिराज को अथवा रामचन्द्रजी एवं सीताजी को जो प्रतिकूल संयोगजन्य दुःख हुआ था, वह पापरूप निकाचित कर्म का उदय था । ये पापरूप निकाचित के उदाहरण हो सकते हैं।
तीर्थंकर अवस्था को प्राप्त करके जो मुक्त हो गये ऐसे शांतिनाथ, कुंथुनाथ, अरनाथ जैसे महापुरुषों को गृहस्थ जीवन में पुण्यरूप निकाचित कर्म था, जो उदय में आकर फल देकर ही नष्ट हो गया। इस कारण वे चक्रवर्ती और कामदेव भी बने थे।
यह पुण्यरूप निकाचित का उदाहरण हो सकता है।
१. प्रश्न :- निधत्ति कर्म एवं निकाचित कर्म ये दोनों कर्म अत्यन्त दृढ़ होते हैं। उन कर्मों का फल जीव को भोगना ही पड़ता है - ऐसा कथन शास्त्र में आता है। यह जानकर हमारे मन में यह प्रश्न होता है कि अरहंत - सिद्ध बनने वाले जीवों ने इन कर्मों का नाश कैसे किया होगा? कहाँ किया होगा? यह स्पष्ट करें।
उत्तर :- आपको प्रश्न होना स्वाभाविक है; ऐसे प्रश्न अनेक जिज्ञासुओं को होते हैं।
आचार्य नेमिचन्द्र ने गोम्मटसार कर्मकाण्ड में ही दशकरण चूलिका के अन्तिम गाथा ४५० में ही आपके प्रश्न का उत्तर दिया है, वह इसप्रकार है -
उदये कममुदये, चउवि दादुं कमेण णो सक्कं । उवसंतं च णिधत्तिं, णिकाचिदं तं अपुव्वोत्ति ।।४५० ।।