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दशकरण चर्चा
उत्तर :- १. इस लोक में जीव और पुद्गल की जो-जो पर्यायें / अवस्थाएँ हमें आपको जानने में आती है उनमें सामान्य एवं विशेष ऐसी दो प्रकार की अवस्थाएँ देखने को मिलती ही है।
( धर्मादि द्रव्यों की पर्यायों को यहाँ गौण किया है; क्योंकि उनके अरूपीपना होने के कारण उनके संबंध में होनेवाला ज्ञान छद्मस्थ को विशद / स्पष्टरूप से नहीं होता) ।
जैसे किसी भी रंग की अवस्था हो, वह सामान्य और विशेष होती ही है। स्निग्ध की पर्यायें भी अलग-अलग होती ही है। मीठापन में भी भिन्नता का स्पष्ट ज्ञान होता है। जैसे गुड़ भी मीठा होता है, शक्कर भी मीठी तो रहती ही है। मिश्री का मीठापन का ज्ञान तो सबको समझ में आता ही है। इससे भी अधिक मीठापन सैक्रीन में होता है।
जैसे ऊपर पुद्गल की पर्यायों में हमने विशेषता का ज्ञान कराया। वैसे कर्म की जो-जो अलग अवस्थाएँ है, उनका भी ज्ञान करना चाहिए। कर्म तो पुद्गलरूप है, यह बात तो आगमाभ्यासी को स्पष्ट ही है। पुद्गलमय कर्म की भी हीनाधिकता होना स्वाभाविक है। इसलिए जिन कर्मों में अधिक दृढ़ता / परिपक्वता रहती है। उन्हें ही तो निधत्ति, निकाचित नाम मिलता है। यदि कर्मों में निधत्ति, निकाचितपना हम नहीं मानेंगे तो पुद्गल की अवस्थाओं का हमें यथार्थज्ञान नहीं है, इसलिए हमें अज्ञानता का दोष आयेगा ।
२. साधक जीव की जिस वीतरागता को धर्म कहते हैं, उस धर्म में हीनाधिकता होती है। चौथे गुणस्थान की वीतरागता / धर्म के कारण जिन कर्मों का नाश होता है, वे कर्म तो सामान्यरूप से दृढ़ होते हैं। जो मात्र भावलिंगी मुनिराज के जीवन में और वह भी अनिवृत्तिकरण नामक गुणस्थान में प्रगट होनेवाले धर्म से निर्जरित होते हैं, वे कर्म वास्तविकता jio
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आगमाश्रित चर्चात्मक प्रश्नोत्तर (निधत्तिकरण- निकाचितकरण) अ. ८ १३५ रूप से देखा जाय तो अति अति दृढ़ होना ही चाहिए। इस अनुमान से भी हम कर्मों में निधत्ति, निकाचितपना की सिद्धि कर सकते हैं।
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यदि हम निधत्ति, निकाचितरूप कर्मों को नहीं मानेंगे तो चौथे गुणस्थान के धर्म और नौवें गुणस्थान के धर्म में भेद अर्थात् तारतम्यता है इसका स्वीकार न होने की आपत्ति आयेगी।
३. यदि हम पापमय निधत्ति, निकाचित कर्म की अवस्था का स्वीकार नहीं करेंगे तो धर्मराज, भीम आदि महापुरुषों को गृहस्थ जीवन में अथवा मुनिराज के जीवन में भी जो प्रतिकूलता का सामना करना पड़ा ऐसा कार्य कैसे हो सकते थे ?
इन कारणों से कर्म में निधत्ति, निकाचितकरणरूप अवस्था होना चाहिए और हमें भी उनको मानना ही चाहिए।
३. प्रश्न :- निधत्ति, निकाचितरूप कर्मों को जीव किन परिणामों से बाँधता है, स्पष्ट करें ?
उत्तर :- पहले हमें यह स्वीकारना चाहिए कि निधत्ति और निकाचितपना पुण्य-पाप दोनों अर्थात् आठों कर्मों में होता है।
सामान्यरूप से पहले हम यह जानें कि तीव्र मिथ्यात्व परिणाम से सहित जो अत्यन्त संक्लेश परिणाम करेगा वही जीव पापरूप निधत्तिनिकाचितरूप कर्मों का बंध करेगा। उसी तरह जो जीव मोक्षमार्गी हुआ हो अर्थात् चौथे, पाँचवें एवं छठवें गुणस्थानवर्ती हो एवं धर्मप्रभावना करने का जिसे विशेष विशुद्ध परिणाम हो, वही जीव . पुण्यरूप निधत्ति - निकाचित कर्मों का बंध करेगा ।
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४. यदि पुण्यमय निधत्ति निकाचित कर्मों को नहीं मानेंगे तो शांतिनाथ, कुंथुनाथ, अरनाथ जैसे तीर्थंकर, कामदेव तथा चक्रवर्तित्व के पुण्य का भोग भी कैसे संभव हो सकता था?