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भावदीपिका चूलिका अधिकार कर्म की उपशांतकरण अवस्था कहते हैं :
अपनी-अपनी स्थिति को लिये हुए सत्ता में रहा हुआ ज्ञानावरणादि कर्मों का द्रव्य, जिसमें जिसकी जितने काल तक उदीरणा नहीं होती, उतने काल तक उपशांत करण कहलाता है।
जो शुभाशुभकर्म आत्मा के तीव्र-मंदकषायों का अनुभाग सहित शुभाशुभभावों से जघन्य, मध्यम, उत्कृष्ट स्थिति सहित बंधा है, वह तो दृढ़रूप से रहता है।
जब तक उसकी उदीरणा होने योग्य हीन - अधिक अनुभाग को लिये आत्मा के भाव न हों, तब तक उस कर्म की उदीरणा करने के लिये आत्मा समर्थ नहीं है।
जब वैसे ही तीव्र-मंद अनुभाग सहित आत्मा के उदीरणा योग्य भाव हों, तब उस कर्म की उदीरणा करने में समर्थ होता है।
इसलिए जितने काल, जिस कर्म की उदीरणा नहीं होती, दूसरेदूसरे करण होते हैं उतने काल तक उपशांत करण कहलाता है।
आगमगर्भित प्रश्नोत्तर १. प्रश्न :- उपशम करण किसे कहते हैं?
उत्तर :- विवक्षित प्रकृति के जो निषेक उदयावली से बाहर हैं, उनके परमाणुओं को उदयावली में आने के अयोग्य करने का नाम उपशम अथवा उपशान्त करण है।
२. प्रश्न :- उपशम के कितने भेद हैं?
उत्तर :- उपशम के दो भेद हैं - एक अन्तरकरण रूप उपशम और दूसरा सदवस्था रूप उपशम ।
३. प्रश्न :- अन्तरकरण उपशम किसे कहते हैं? उत्तर :- जिस कर्म का अन्तरकरण करना हो उसकी प्रथम स्थिति और द्वितीय स्थिति को छोड़कर मध्यवर्ती अन्तर्मुहूर्त मात्र स्थिति के निषेकों का अभाव करने को अन्तरकरण कहते हैं।
जैसे, मिथ्यादृष्टि मिथ्यात्वकर्म का अन्तरकरण करता है। इसमें अन्तर्मुहूर्त काल लगता है। सो वह अनादिकाल से उदय में आने वाले मिथ्यात्वकर्म की अन्तर्मुहूर्त प्रमाण स्थिति सम्बन्धी निषेक को छोड़कर उससे ऊपर के अन्तर्मुहूर्त प्रमाण स्थिति के निषेकों को अपने स्थान से उठा-उठाकर कुछ को प्रथम स्थिति (नीचे की स्थिति) सम्बन्धी निषेकों में मिला देता है। कुछ को द्वितीय स्थिति संबंधी निषेकों में मिला देता है।
इसतरह वह तब तक करता रहता है, जबतक अन्तर्मुहूर्त प्रमाण स्थिति के पूरे निषेक समाप्त न हो जायें। जब मध्यवर्ती समस्त निषेक ऊपर की अथवा नीचे की स्थिति के निषेकों में दे दिये जाते हैं और प्रथम स्थिति तथा द्वितीय स्थिति के बीच का अन्तरायाम मिथ्यात्व
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