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________________ चर्चात्मक प्रश्नोत्तर (उपशांतकरण) अ. ७ १२५ ३. प्रश्न : सत्त्वकरण और उपशान्तकरण में क्या अन्तर है? उत्तर : कर्मबंध होने के बाद उदयकरण काल पर्यंत के बीच के काल में जो कर्म का अस्तित्व रहता है, उसे सत्त्व अथवा सत्ता कहते हैं। सत्ता (सत्त्व) करण का काल दीर्घ होता है। कर्मबंध होने के बाद मर्यादित काल पर्यंत कर्म के उदय, उदीरणा नहीं होना - कर्म की दबे रहनेरूप अवस्था को उपशांतकरण कहते हैं। सत्त्वकरण के काल की अपेक्षा से उपशांतकरण का काल अति अल्प होता है। उपशांतकरण के संबंध में जिनेन्द्रवर्णीजी के विचार निम्नानुसार अधिकार आठवाँ ८ - उपशांतकरण आगमाश्रित चर्चात्मक प्रश्नोत्तर १. प्रश्न :- उपशान्तकरण किसे कहते हैं? उत्तर :- १. उपशांतकरण को ही उपशमना करण कहते हैं। २. उपशांतकरण आठों कर्मों में होता है। ३. उपशांत अवस्था को प्राप्त कर्म का उत्कर्षण, अपकर्षण और संक्रमण हो सकता है; किन्तु उसकी उदीरणा नहीं होती। ४. उपशांतकरण/उपशमनाकरण आठों कर्मों में होता है। ५. कर्मों की दस अवस्थाओं में एक उपशांतकरण भी है। २. प्रश्न :- यदि उपशान्तकरण नहीं होता तो क्या आपत्ति आती? उत्तर :- यदि उपशांत करण नहीं होता तो कर्मबंध के बाद तत्काल ही कर्म का उदय आ सकने के कारण कर्मोदय की व्यवस्थित व्यवस्था ही भंग हो जाती। यदि उपशांत करण नहीं मानेंगे तो कर्मबंध होने के अनंतर/तत्काल ही कषाय आदि का उदय हो जाने से कोई भी सम्यग्दृष्टि, संयमी, जानी. पूर्ण ज्ञानी आदि होने का कार्य भी जीव नहीं कर सकगा। "उपशमनकरण का भी बहुत बड़ा महत्व : क्यों और कैसे? - उपशमन का भी जीव को बन्ध से मुक्ति की ओर ले जाने में बहुत बड़ा हाथ है। क्योंकि जितनी देर तक कर्ममल उपशम-अवस्था में शान्त रहा-दबा रहा, या उदय से विरत रहा, उतनी देर तक आत्मा के परिणाम शत-प्रतिशत निर्मल तथा शुद्ध रहे। इतने काल तक उसमें न तो कोई रागादि का विकल्प उठा, और न ही कोई कषाय। वह उतनी देर तक पूर्णतया समता अथवा शमता से युक्त रहा। यह थोड़ा-सा काल बीत जाने पर भले ही कर्म उदय में आ जाए, और उसके प्रभाव से जीव में पुनः विकल्प एवं कषाय जागृत हो जाए; किन्तु उपशम काल में तो वह उतनी देर तक पूर्णतया निर्विकल्प तथा वीतराग रहा ही है। यद्यपि यह काल अतीव अल्प होता है, फिर भी मुमुक्षु साधक के जीवन में, बन्ध से मुक्ति की ओर दौड़ लगाने में इसका महत्व बहुत अधिक है। बन्ध से मुक्ति की यात्रा में उपशम का पड़ाव वीतरागता और निर्विकल्पता की झाँकी दिखने वाला पड़ाव है।" - ---१. कर्म सिद्धान्त (जिनेन्द्र वर्णी) पृ. १०८ (65)
SR No.009441
Book TitleAdhyatmik Daskaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages73
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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