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दशकरण चर्चा
वैसा होता है, उसे जीव मात्र जानता है। इसतरह जीव मात्र ज्ञाता ही है; यह विषय समझ में आता है।
विकल्प किसी भी कार्य को करने में समर्थ नहीं है; इस अपेक्षा से विकल्प असमर्थ हैं; ऐसा स्पष्ट निर्णय होता है।
संक्रमणकरण के संबंध में ब्र. जिनेन्द्रवर्णीजी का विचार हम आगे दे रहे हैं -
"संक्रमण की प्रक्रिया मनोविज्ञानानुसार मानसिक ग्रन्थियों से छुटकारा पाने का मानवजाति के लिए अतीव उपयोगी, सरलतम एवं महत्वपूर्ण उपाय है।
संक्रमणकरण का सिद्धान्त प्रत्येक व्यक्ति के लिए आशास्पद और प्रेरक -
संक्रमण का यह सिद्धान्त स्पष्टतः प्रत्येक व्यक्ति के लिए आशास्पद एवं पुरुषार्थ प्रेरक हैं कि व्यक्ति पहले चाहे जितने दुष्कृतों (पापों) से घिरा हो, परन्तु वर्तमान में वह सत्कर्म कर रहा है, सद्भावना और सद्वृत्ति से युक्त है तो वह कर्मों के दुःखद फल से छुटकारा पा सकता है और उत्कृष्ट रसायन (परिणाम) आने पर कर्मों से सदा-सदा के लिए छुटकारा पा सकता है। जैसे - तुलसीदास जी ।
किसी व्यक्ति ने पहले अच्छे कर्म बांधे हों, किन्तु वर्तमान में वह दुष्प्रवृत्तियाँ अपनाकर बुरे (पाप) कर्म बांध रहा है तो पहले के पुण्य कर्म भी पापकर्म में बदल जाएँगे। फिर उनका कोई भी अच्छा व सुखद फल नहीं मिल सकेगा। अतः संक्रमणकरण द्वारा मनुष्य अपने जीवन सदुपयोग या दुष्प्रयोग कर अपने दुर्भाग्य को सौभाग्य में या सौभाग्य को दुर्भाग्य में बदल सकता है। प्रत्येक व्यक्ति अपना भाग्य विधाता स्वयं ही है, भाग्य को बदलने में वह पूर्ण स्वाधीन है।"
१. कर्म सिद्धान्त, पृ. २१, २२
२. कर्मसिद्धान्त पृ. २८, २९
Khata
Ananji Adhyatmik Duskaran Book
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भावदीपिका चूलिका अधिकार
अब आगे संक्रमणकरण संबंधी विशेष ज्ञान कराने के अभिप्राय से भावदीपिका शास्त्र का विभाग दे रहे हैं।
कर्म की संक्रमणकरण अवस्था कहते हैं -
“अन्य प्रकृतियों के परमाणु दूसरी अन्य प्रकृतियोंरूप होकर परिणमे, उसे संक्रमण कहते हैं।
जो मतिज्ञानावरणादि के परमाणु श्रुतज्ञानावरणरूप होकर परिणमे, श्रुतज्ञानावरण के अवधिज्ञानावरणरूप और अवधिज्ञानावरण के मन:पर्ययज्ञानावरणरूप तथा मन:पर्ययज्ञानावरण के केवलज्ञानावरणरूप, केवलज्ञानावरण के मन:पर्यय आदि ज्ञानावरणरूप होकर परस्पर रूप परिणमते हैं।
मतिज्ञानावरणादि श्रुतज्ञानावरणादिरूप परिणमे, श्रुतज्ञानावरणादि मतिज्ञानावरणादि रूप होकर परिणमे यह परस्पर सजातीय द्रव्य का सजातीय में संक्रमण हुआ, विजातीय में संक्रमण नहीं होता ।
इसी प्रकार दर्शनमोहनीय की तीन प्रकृतियों का दर्शन मोहनीय की प्रकृतिरूप, चारित्रमोहनीय की पच्चीस प्रकृतियों का चारित्र - मोहनीय की प्रकृतिरूप, अंतराय की पाँच प्रकृतियों का अपनी अंतराय की प्रकृतियोंरूप, वेदनीय की दो प्रकृतियों का सातावेदनीय का असातावेदनीयरूप, असातावेदनीय का सातावेदनीयरूप संक्रमण होता है।
नामकर्म की ९३ प्रकृति परस्पर नामकर्म की प्रकृतिरूप, गोत्रकर्म की नीचगोत्र की उच्चगोत्र और उच्चगोत्र की नीचगोत्ररूप होकर
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