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________________ अधिकार सातवाँ ७- संक्रमणकरण आगमाश्रित चर्चात्मक प्रश्नोत्तर अब यहाँ संक्रमणकरण विषय को लेकर कुछ चर्चा करेंगे। १. प्रश्न :- संक्रमण करण साधक के जीवन में किसतरह उपयोगी हैं? उत्तर :- संक्रमणकरण का काम एक प्रकार से क्रांतिकारी कार्य है। उसका खुलासा इसप्रकार है - -बंधकरण में तो नया कर्म का बंध होता है। - सत्त्वकरण में बद्ध कर्म जीव के साथ मिट्टी के ढेले के समान पड़ा रहता है। - उदयकरण तो सत्त्वकरण का कार्य है। - उदीरणाकरण एक दृष्टि से उदय ही है। - उत्कर्षण एवं अपकर्षण में मात्र स्थिति-अनुभाग बढ़ते अथवा घटते हैं। १. इस संक्रमण करण में बदलने का कार्य होता है। इसकारण यह आमूलचूल क्रांतिकारी कार्य करता है। २. संक्रमण के बिना क्षायिक सम्यग्दर्शन भी नहीं हो सकता; क्योंकि अनंतानुबंधी की विसंयोजना सर्व-संक्रमणरूप ही है। मिथ्यात्व का संक्रमण सम्यग्मिथ्यात्व व सम्यक्प्रकृति में होता रहता है। इसी क्रम से मिथ्यात्व सर्वप्रथम नष्ट होता है। तदनन्तर मिश्र/सम्यग्मिथ्यात्व दर्शनमोहनीय कर्म का संक्रमण ... आगमगर्भित प्रश्नोत्तर (संक्रमणकरण) अ.६ ११७ सम्यक्प्रकृति में होता है । सम्यक्प्रकृति स्वोदय से नष्ट होती है। इसतरह संक्रमण के बिना क्षायिक सम्यग्दर्शन हो नहीं सकता। ३. श्रेणी में भी अप्रत्याख्यानावरण + प्रत्याख्यानावरण आठों कषायों का संक्रमण के द्वार से ही अभाव होता है। संज्वलन क्रोध, मान, माया एवं स्थूल लोभ मानादि में संक्रमित होते हुए सूक्ष्मलोभरूप से परिणत होते हैं। इसलिए चारित्र की पूर्णता में संक्रमण करण अपना विशेष महत्व रखता है। ४. कर्मरूप पुद्गलों में संक्रमण अपनी-अपनी पात्रता से ही स्वतंत्ररूप से होता है; यह विषय स्पष्ट रूप से ज्ञात होता है। इस संक्रमणरूप कार्य का कर्ता कर्मरूप पुद्गल ही है, जीव द्रव्य अथवा जीवद्रव्य का परिणाम भी नहीं। (जीव के परिणाम संक्रमण में निमित्त हैं, इसका निषेध नहीं।) जीव संक्रमण का मात्र ज्ञाता है। इससे उदय और औदयिकभावों का यथार्थ ज्ञान होता है। संक्रमण का सामान्य निमय - १. मूल कर्मों में संक्रमण नहीं होता। २. उत्तर प्रकृतियों में ही संक्रमण होता है, वह भी अपनी सजातीय प्रकृति में बदलता है, ऐसा है; तथापि इस नियम में अपवाद भी है। ३. जैसे चारों आयु का (सजातीय होने पर भी) परस्पर में संक्रमण नहीं होता, यह कथन पुद्गल की अपनी स्वतंत्रता को स्पष्ट करता है। ५. संक्रमण में थिबुक्क (स्तिबुक) संक्रमण नाम का एक संक्रमण है। इस कारण कर्म एक समय के पूर्व ही अन्य प्रकृति में बदल जाता है। जैसे - क्षयोपशम दशा में सर्वघाति स्पर्धक देशघातिरूप में बदल जाते हैं। इससे संक्रमण की सूक्ष्मता का बोध होता है। ६. कर्म का विशिष्ट रूप से संक्रमण हो, ऐसे विकल्प के कारण किसी भी कर्म का संक्रमण नहीं होता। जैसा संक्रमण होना होता है,
SR No.009441
Book TitleAdhyatmik Daskaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages73
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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