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दशकरण चर्चा
अपनी-अपनी सजातीय प्रकृतियोंरूप होकर परस्पर संक्रमण होता है, विजातीय प्रकृतिरूप परिणमते नहीं हैं।
ऐसे आयु कर्म के बिना सात कर्मों का परस्पर में संक्रमण होता है। आयु कर्म का संक्रमण करण नहीं होता। इसलिए आयुकर्म में संक्रमण करण बिना नौ करण ही होते हैं। ऐसे सत्तारूप रहे आयुकर्म बिना सात कर्म, उनका अपनी-अपनी प्रकृतियों का अपनी-अपनी प्रकृतियों में संक्रमण होता है। इसप्रकार संक्रमण करण भी आत्मा के भावों के अनुसार ही होता है।
जब जो जीव शुभ लेश्यादि शुभ भावोंरूप परिणमता है, तब असातावेदनीय आदि अशुभ प्रकृतियों का द्रव्य सातावेदनीय आदि शुभ प्रकृतियों में संक्रमण/संक्रमित होता है।
जब (जीव) अशुभ लेश्यादि अशुभभावों रूप परिणमता है, तब सातावेदनीय आदि शुभ प्रकृतियों का द्रव्य असातावेदनीय आदि अशुभ प्रकृतिरूप परिणमता है। ऐसा संक्रमणकरण का विधान जानना।"
आगमगर्भित प्रश्नोत्तर अब आगे संक्रमणकरण का विषय दे रहे हैं। १. प्रश्न : संक्रमणकरण का स्वरूप क्या है? उत्तर : १. एक प्रकृति का अन्य सजातीय प्रकृति में परिवर्तित हो
जाने को संक्रमण कहते हैं।
२. एक अवस्था से दूसरी अवस्थारूप संक्रान्त होना संक्रमण है।' २. प्रश्न : संक्रमण कितने प्रकार का है?
उत्तर : कर्मों का यह संक्रमण ४ प्रकार का है - १. प्रकृति संक्रमण, २. प्रदेश संक्रमण, ३. स्थिति संक्रमण, ४. अनुभाग संक्रमण।
१. एक प्रकृति का अन्य प्रकृति में संक्रमण हो जाना, यह प्रकृति ___ संक्रमण है। जैसे - क्रोध कर्म का मान कषाय में बदलना ।' २. विवक्षित कर्म प्रदेशाग्र अन्य प्रकृति में सक्रान्त किया जाता
है, उसे प्रदेश संक्रमण कहते हैं। (ध. १६/४०८) ३. कर्मों की स्थिति का उत्कर्षित - अपकर्षित होना स्थिति
संक्रमण है। ४. कर्मों का अनुभाग का अपकर्षित होना - उत्कर्षित होना ____ अनुभाग संक्रमण है । (ध. १६/३७५) दर्शनमोह का चारित्रमोह में संक्रमण नहीं होता; तथापि दर्शनमोह का दर्शनमोह में संक्रमण होता है। जैसे - मिथ्यात्व का सम्यग्मिथ्यात्व में।
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१.- ज.ध. ९/३ २.-ध. १६/३४०