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दशकरण चर्चा
भावदीपिका चूलिका अधिकार
के द्वारा कर्म स्थिति का दीर्धीकरण एवं रस का तीव्रीकरण होता है, जबकि अपवर्त्तना के द्वारा कर्मस्थिति का अल्पीकरण (स्थितिघात) और रस का मन्दीकरण (रसघात) होता है।
स्थिति का अपकर्षण हो जाने पर सत्ता में स्थित पूर्वबद्ध कर्म अपने समय से पहले ही उदय में आकर झड़ जाते हैं, तथा स्थिति का उत्कर्षण होने पर वे कर्म अपने नियतकाल का उल्लंघन करके बहुत काल पश्चात् उदय में आते हैं। ___ अपकर्षण तथा उत्कर्षण के द्वारा जिन-जिन और जितने कर्मों की स्थिति में अन्तर पड़ता है उन्हीं के उदयकाल में अन्तर पड़ता है। इनके अतिरिक्त जो अन्य कर्म सत्ता में पड़े हैं, उनमें कुछ भी अन्तर नहीं पड़ता । यह अन्तर भी कोई छोटा-मोटा नहीं होता, प्रत्युत एक क्षण में करोड़ों-अरबों वर्षों की स्थिति घट-बढ़ जाती है।
जिस प्रकार स्थिति का अपकर्षण-उत्कर्षण होता है, उसी प्रकार अनुभाग का भी होता है। विशेषता केवल इतनी ही है कि स्थिति के अपकर्षण-उत्कर्षण द्वारा कर्मों के उदयकाल में अन्तर पड़ता है, जबकि अनुभाग के उत्कर्षण-अपकर्षण द्वारा उनकी फलदान-शक्ति में अन्तर पड़ता है। __ अपकर्षण द्वारा तीव्रतम शक्ति वाले कर्म एक क्षण में मन्दतम हो जाते हैं, जबकि उत्कर्षण द्वारा मन्दतम शक्ति वाले संस्कार (कर्म) एक क्षण में तीव्रतम हो जाते हैं।"
अब आगे उत्कर्षण-अपकर्षण के संबंध में विशद जानकारी होवे; इस भावना से भावदीपिका शास्त्र का अंश दे रहे हैं। कर्म की उत्कर्षण और अपकर्षणकरण अवस्था कहते हैं -
“जीव के भावों का निमित्त पाकर सत्ता में पड़े हुए जो ज्ञानावरणादिरूप द्रव्यकर्म, उनकी स्थिति और अनुभाग का बढ़ जाना - अधिक हो जाना, उसे उत्कर्षण कहते हैं और उनका घट जाना - हीन हो जाना, उसे अपकर्षण कहते हैं।"
जब पीत-पद्म-शुक्ल लेश्यादि शुभभावोंरूप जीव परिणमता है, तब सातावेदनीय आदि शुभप्रकृतियों का स्थिति और अनुभाग का बहुत उत्कर्षण हो जाता है और ज्ञानावरणादि चार घातिया का और असातावेदनीय आदि अघातियारूप अशुभ प्रकृतियों का स्थितिअनुभाग अपकर्षण से अल्प हो जाता है।
जब कृष्ण लेश्यादि अशुभ भावोंरूप जीव परिणमता है, तब ज्ञानावरणादि चार घातिया और असातावेदनीय आदि अघातियारूप अशुभ प्रकृतियों का स्थिति-अनुभाग उत्कर्षण से बढ़ जाता है। और सातावेदनीय आदि शुभ प्रकृतियों का स्थिति-अनुभाग अपकर्षण से अल्प रह जाता है।
नीचे के निषेकों में जघन्यादि अल्प स्थिति-अनुभाग लिये हुए थे, - जो ज्ञानावरण आदि कर्मत्वरूप शक्ति को लिये हुए कर्मरूप पुद्गल,
१. कर्म रहस्य (ब्र. जिनेन्द्र वर्णी), पृ. १७२, १७३
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