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दशकरण चर्चा
आगमाश्रित चर्चात्मक प्रश्नोत्तर (उत्कर्षण-अपकर्षण) अ. ५-६ १०९ काल प्रत्यासत्ति (काल की नजदीकता/समानता) है; इसकारण
परिवर्तन को देख सकते हैं। जैसे कोई मनुष्य राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री आदि निमित्त-नैमित्तिक संबंध का स्वीकारना भी होता है।
नेतृत्व पद पर हो, उस समय का बाह्य परिकर और मनुष्य का वह निमित्त-नैमित्तिक संबंध में स्वतंत्रता एवं स्वाधीनता को स्वीकारना
विशिष्ट पद का अभाव होने पर परिकर में होनेवाला बदल, यह सब को ही वास्तविक पुरुषार्थ है।
सहज समझ में आने लायक होता है। ऐसा अत्यन्त विशेष परिवर्तन __वास्तविक रूप से विचार किया जाय तो कर्म का उत्कर्षण
पूर्वबद्ध कर्मों के उत्कर्षण अथवा अपकर्षण के बिना कैसे होगा? अपकर्षण कर्म (पुद्गल) की अपनी-अपनी पर्यायगत योग्यता से अपने
३. गजकुमार को कुछ समय पहले तो ब्राह्मण कन्या के साथ शादी अपने काल में स्वयं से ही होता है। इस कर्म के उत्कर्षण-अपकर्षण
करने के परिणाम हुए थे और बाद में मुनि अवस्था का स्वीकार होना एवं रूप कार्य में जीव का अपनी ओर से कुछ कर्त्तव्य नहीं है।
मस्तक के जलने पर भी समता का परिणाम रहना - परिणामों में २. प्रश्न :- उत्कर्षण-अपकर्षण नही मानेंगे तो क्या आपत्तियाँ
आमूलचूल परिवर्तन - इसमें यथायोग्य कर्म का निमित्तपना तो होगा ही। आयेगी?
सुभौम चक्रवर्ती को चक्रवर्तित्व अवस्था में होनेवाले परिणाम उत्तर :- जीव के परिणामों के निमित्त से पूर्वबद्ध कर्म में स्थिति
और नरक में जाने के बाद होनेवाले परिणाम और परिकर में होनेवाला अनुभाग के बढ़ने का काम उत्कर्षण में होता है और स्थिति, अनुभाग
परिवर्तन यह सब कर्म के निमित्त के बिना कैसे माना जा सकता है? के घटने का काम अपकर्षण में होता है।
इसलिए पूर्वबद्ध कर्म में उत्कर्षण तथा अपकर्षण होता है; यह मानना १. पुण्य एवं पाप परिणामों में परिवर्तन का काम तो हमेशा सर्व
आवश्यक है। जीवों में होता ही रहता है। परिणामों के परिवर्तन में कभी पुण्यरूप
ब्र. जिनेन्द्रवर्णीजी ने उत्कर्षण-अपकर्षण के संबंध में स्पष्ट लिखा परिणामों में विशेष वृद्धि होती है और कभी पापरूप परिणाम भी एकदम
है, उसे दे रहे हैं - अधिक तीव्ररूप होते हैं। परिणाम में तीव्रता आवे और उसके निमित्त
"उत्कर्षण-अपकर्षण स्वरूप और कार्य - से पूर्वबद्ध कर्मों में कुछ भी परिवर्तन न हो, यह कैसे हो सकता है?
तात्पर्य यह कि बन्ध के समय कषायों की तीव्रता-मन्दता आदि इसलिए उत्कर्षण-अपकर्षण कर्मों में होना सहज ही बनता है। कार्य
के अनुसार स्थिति और अनुभाग होते हैं। कर्म से बंधी हुई स्थिति और सहज ही बनता है, उसे न मानने से कैसे काम चलेगा?
अनुभाग में किसी तीव्र अध्यवसाय विशेष के द्वारा बढ़ाना उत्कर्षण २. जैसे ऊपर हमने जीव के परिणामों के अनुसार कर्म में स्थिति
(उद्वर्तना) है, इसके विपरीत उत्कर्षण की विरोधी अवस्था अपकर्षण एवं अनुभाग बढ़ने का काम सहज स्वीकारना चाहिए, यह देखा; तदनुसार
है। सम्यग्दर्शनादि से पूर्व-संचित कर्मों की स्थिति एवं अनुभाग को मनुष्य के जीवन में बाह्य अनुकूल-प्रतिकूल सयोगों में आमूल-चूल Annapurnakar k क्षीण कर देना अपकर्षण है। इसका दूसरा नाम अपवर्त्तना है। उद्वर्तना
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