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अधिकार पाँचवाँ ५ - उत्कर्षण एवं ६ - अपकर्षणकरण
आगमाश्रित
चर्चात्मक प्रश्नोत्तर १. प्रश्न :- उत्कर्षण एवं अपकर्षण करण समझने से हमें क्या लाभ है?
उत्तर :- उक्त दोनों करणों (कर्म की अवस्था) को जानकर हमें अनेक लाभ हैं, जो इसप्रकार है -
१. उत्कर्षण एवं अपकर्षण करण को जानने से तत्संबंधी अज्ञान का नाश होता है तथा ज्ञान की प्राप्ति होती है, यह तो सामान्य लाभ है।
२. सर्वज्ञ भगवान के ज्ञान में जो झलकता है, उसे जानने से सर्वज्ञ भगवान की/सच्चे देव, सच्चे शास्त्र एवं गुरु की विशेष महिमा आती है।
३. दसों करणों का प्रकरण सूक्ष्म होने से इन्हें जानने के कारण अपनी बुद्धि भी सूक्ष्म विषयों को जानने के लिए समर्थ होती है।
४. पूर्वबद्ध कर्मों में स्थिति-अनुभाग का बढ़ना उत्कर्षण है तथा स्थिति-अनुभाग का घटना अपकर्षण है - यह समझने से प्रत्येक जीव पूर्वबद्ध कर्मों के संयोग से सहित ही है; ऐसा ज्ञान होता है।
५. पूर्वबद्ध कर्मों में परिवर्तन होने में निमित्तरूप शुभाशुभ जीव के ...
आगमाश्रित चर्चात्मक प्रश्नोत्तर (उत्कर्षण-अपकर्षण) अ. ५ परिणाम होते ही रहते हैं, ऐसा ज्ञान होता है।
६. परिणामों में परिवर्तन होता रहता है - इसका अर्थ अपने परिणामों की अस्थिरता/चंचलता भी हमें समझ में आती है।
७. परिणामों में परिवर्तन होने से ही जीव संसार से मुक्त अवस्था प्राप्त कर सकता है - ऐसा ज्ञान व श्रद्धान होता है।
८. परिणामों में एवं कर्मों में प्रति समय फेरफार होते हुए भी (परिणामों की क्रमबद्धता में बाधा नहीं आती) मैं तो स्वभाव से इन सभी (शुभाशुभ तथा शुद्ध) परिणामों से भी सर्वदा भिन्न टंकोत्कीर्ण स्वभावी हूँ - ऐसी प्रतीति बराबर बनी रहती है। अन्य जीव भी स्वभाव से अबद्धस्पष्ट हैं - ऐसा ज्ञान होता है। अर्थात् परिणामों से अपरिणामी का पता लगता है।
९. परिणामों को जानते हुए भी श्रद्धा में अपरिणामी तत्त्व साधक के जीवन में ऊर्ध्व रहता है, इसका पता चलता है।
१०. शुभाशुभ परिणामों से बंधे हुए पुण्य-पाप कर्मों का मैं मात्र ज्ञाता हूँ, यह भाव जागृत होता है। पुण्य-पाप कर्म में समभाव उत्पन्न होता है।
११. ज्ञेय बननेवाले जीवों के परिणामों के भी हम ज्ञाता रह सकते हैं; इसकारण समता भाव जागृत होता है।
मात्र तात्कालिक औदयिक परिणामों से किसी भी मनुष्य/जीव को अच्छा-बुरा समझना अपराध है; ऐसी यथार्थ जानकारी होती है।
१२. जीव का परिणाम निमित्त है और पूर्वबद्ध कर्मों में उत्कर्षण एवं अपकर्षण होना नैमित्तिक कार्य है। - इसतरह स्वतंत्र निमित्तनैमित्तिक संबंध का भी ज्ञान होता है।
यहाँ जीव का परिणाम तो जीव का कार्य है और कर्मों में होनेवाला कार्य कर्मों का है - दोनों अपने-अपने में स्वतंत्र है; तथापि दोनों में
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