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दशकरण चर्चा
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६. चारित्र मोहनीय की उदीरणा -
क्रोधादि तेरह कषाय के बाह्य कारणरूप पदार्थों को याद करने से, दृष्टि से देखने पर, वाचक ( कहने रूप) संबंध करने से, तेरह प्रकार भेद लिये चारित्रमोहनीय नामक कर्म, उसके जिस-जिस भेद के कारणरूप पदार्थों का संबंध करने से, उसको उस-उस भेद (रूप कर्म) की उदीरणा होकर उदय को प्राप्त होती है, वहाँ उसी भाव रूप आत्मा परिणमता है। क्रोध के कारण से अपने कार्य के बिगाड़ने वाले, अपने मानादि कषाय को भंग करने वाले, अपनी आज्ञा का लोप करने वाले इत्यादि अपने को दुःखदायक पदार्थों को याद करने से, दृष्टिगोचर होने से, संबंध करने से तत्काल क्रोध नामक चारित्रमोह की उदीरणा हो, उसी समय जीव क्रोधभाव को प्राप्त होता है।
वैसे ही मान के कारणरूप पदार्थों के संबंध से मान का माया के कारणरूप पदार्थों से माया का लोभ के कारण धनादि इष्ट सामग्री के संबंधादि होने से लोभ की उदीरणा होती है। ७. हास्यादि नोकषाय की उदीरणा
हास्य के कारण नकली बहुरूपियादि, रति के कारण इष्ट स्त्री-पुत्र या इष्ट भोजनादि, पाँचों ही इन्द्रियों के मनोज्ञ विषयादि देखने-जानने से अरति के कारण अनिष्ट स्त्री- पुत्रादि या अनिष्ट भोजनादि या पाँचों ही इन्द्रियों के अनिष्ट विषयादि देखने-जानने से हास्यादि की उदीरणा होती है।
शोक के कारण रूप पदार्थों से शोक की भय के कारण रूप पदार्थों से भय की ग्लानि के कारण दुर्गंधादि सूँघना, विष्टा आदि द्रव्य का - अप्रिय पदार्थों को देखने-जानने से जुगुप्सा की उदीरणा होती है।
रूपवान स्त्रियों के याद करने से या दृष्टिगोचर होने से या मन को चलायमान करने वाले संबंध से पुरुषवेद की उदीरणा हो जाती है।
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भावदीपिका चूलिका अधिकार (उदीरणाकरण) अ. ४
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रूपवान तरूण वस्त्र - भूषणादि से युक्त पुरुष को देखने से स्त्रीवेद की या स्त्री-पुरुष दोनों के संबंधादि से नपुंसकवेद की उदीरणा होती है। इत्यादि जिस-जिस चारित्रमोह कर्म के उदय के कारणभूत पदार्थों का संबंधादि हो, उस ही कर्म की उदीरणा होकर उदय आता है, उसी के अनुसार जीव के भावों की उत्पत्ति होती है।
८. आयु कर्म की उदीरणाभोजन - पानी आदि न मिलने से रोगादि होने पर औषधादि के प्रतिकारों के न मिलने से, अन्यथा मिलने से, अन्यथा क्रिया से प्रकृतिविरुद्ध भोजन - पानादि से विषादि खाने से शस्त्रादि के घात से जल-अग्नि आदि के संबंध से इत्यादि घात के अनेक कारणभूत पदार्थों के संबंध होने से, दृष्टिगोचर होने से, स्मरण होने से आयु कर्म की उदीरणा होकर मरण को प्राप्त होता है।
इसलिए इन पदार्थों का संबंधादि होने या न होने से जीव के वैसे ही उदीरणा योग्यभाव होते हैं । वहाँ आयुकर्म की उदीरणा होती है।
एवं जहाँ अनेक प्रकार घात के कारण मिलने पर या घात से ही जीव के आयुकर्म की उदीरणा होने योग्य भाव न हों तो उदीरणा नहीं होती; तब अनेक घातादि होने पर भी मरण नहीं होता । ९. नाम - गोत्र कर्म की उदीरणा
इसीप्रकार नामकर्म की, गोत्रकर्म की उदीरणा के बाह्य कारण मिलते हैं और नामकर्म की या गोत्रकर्म की उदीरणा होती है। १०. अंतराय कर्म की उदीरणा
अन्तराय कर्म की उदीरणा के बाह्य कारण मिलने से अंतरायकर्म की उदीरणा होती है। दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्यरूप कार्य होते हुए भयादि के कारणभूत पदार्थों का निमित्त पाकर दान आदिक पाँच भावों से जीव के परिणाम घृणायुक्त होते हैं, तब उन भावों का निमित्त पाकर दानांतराय, लाभांतराय, भोगांतराय, उपभोगांतराय और