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दशकरण चर्चा
अशुभ भाव होते हैं, उन्हीं के अनुसार शुभ-अशुभ कर्म की उदीरणा होती है।
जिस जीव के (जिस) कर्म की उदीरणा होकर उदय होता है, उसी के अनुसार जीव का भाव होता है।
शुभाशुभ कर्म की उदीरणा के कारण ऐसे बाह्य शुभाशुभ पदार्थ का निमित्त पाकर शुभाशुभ कर्म की उदीरणा हो उदय होता है, उसी के अनुसार जीव का भाव होता है।
१. ज्ञानावरण दर्शनावरण की उदीरणा
स्वयं ने शास्त्र पढ़े हैं या पढ़ाये हैं; उसका मद करने से, अन्य सम्यग्ज्ञानी पण्डितों से ईर्ष्या करने से कुपथ को ग्रहण करने से कुपथ का ग्रहण कर सम्यग्ज्ञानी से विवाद करने से अन्य को कुपथ का ग्रहण कराने के लिए हठ करने से जैन आम्नाय के विरुद्ध उपदेश देने से मिथ्या शास्त्र, काव्य, श्लोकादि बनाने से शास्त्र को पढ़ाने वाले उपाध्याय का अविनय करने से ज्ञान - चारित्र को ढकने या घात करने से अपने विद्यागुरु को छिपाने से यथार्थ को दोष लगाने से मूर्खों की संगति से अधिक विकथारूप प्रलाप करने से अधिक विकथासक्त होने से आलसी प्रमादी होने से अधिक क्रोध-लोभादि कषायों के अभिनिवेश से अधिक हँसने से या रति, अरति, शोक, भय, ग्लानि के अधिक अभिनिवेश से कामासक्त होने से बहुत आरम्भ करने से कामोद्दीपक आहार
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करने से अमलयुक्त नशायुक्त वस्तु के खाने इत्यादि बाह्य कारणों से ज्ञानावरण, दर्शनावरण कर्म की उदीरणा होकर उदय को प्राप्त होते हैं।
तत्काल ज्ञान का नाश होता है या इन्हीं पूर्वोक्त बाह्य कारणों से दर्शनावरण कर्म की उदीरणा होती है।
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भावदीपिका चूलिका अधिकार (उदीरणाकरण) अ. ४
२. निद्रा आदि की उदीरणा -
(इष्ट अर्थात् अनुकूल होना अभिप्रेत है, उसमें अभिप्रेत में उपयोग के जोड़ने से दही आदि निद्रा की कारणरूप वस्तुओं को खाने से निद्रा की कारणरूप सुख-शय्यादि सामग्री मिलने से निद्रा की इच्छा करके पैर पसारकर सो जाने से पाँच निद्रा आदि दर्शनावरण कर्म की उदीरणा होकर उदय को प्राप्त होता है; तब सर्व पदार्थों संबंधी सामान्य अवलोकन का अभाव होता है।
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३. असाता की उदीरणा -
दुःख-शोक के कारणरूप पदार्थों के देखने से याद करने से — दुःख-शोकादि के कारणरूप बाह्य पदार्थों का अपनी बुद्धिपूर्वक अपने से संबंध जोड़ने से असातावेदनीय कर्म की उदीरणा होकर उदय को प्राप्त हों, तब जीव सुखी से दुःखी होता है।
४. साता की उदीरणा
सुख के कारण इष्ट पदार्थों के देखने से (पंखा आदि से) हवादि करने से साता के उदय में अपनी बुद्धिपूर्वक अपने सुख के कारणरूप पदार्थों के संबंध करने से देव-गुरु-धर्मादि से संबंध करने से या स्मरण, ध्यान, चिंतवन, जाप आदि करने से सातावेदनीय कर्म की उदीरणा होकर उदय को प्राप्त होता है, तब जीव दुःखी से सुखी होता है।
५. दर्शनमोहनीय ( मिथ्यात्व ) की उदीरणा
केवली देव-शास्त्र-गुरु, धर्म, चतुर्विध संघ और जीवादि तत्त्वइनका स्वरूप जानने पर भी अन्यथा कहने से कुगुरु-कुदेव, कुधर्म के धारक उनकी सराहना करने इत्यादि से दर्शनमोह जो मिथ्यात्वकर्म की उदीरणा होकर उदय को प्राप्त होता है, तब यह जीव तत्काल सम्यग्दृष्टि से मिथ्यादृष्टि हो जाता है।