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भावदीपिका चूलिका अधिकार
अब आगे उदीरणाकरण समझने के लिए पण्डित दीपचन्दजी कासलीवाल कृत भावदीपिका का उदीरणाकरण का समग्र विषय दे रहे हैं। दशकरणों में से पण्डितजी ने उदीरणाकरण को समझाने के लिए अधिक विस्तार के साथ लिखा है।
इस प्रकरण में बीच-बीच में जो हैडिंग दिये हैं, उतना ही हमने अपनी ओर से जोड़ा है। मूल विषय को यथावत् दिया है। कर्मों की उदीरणाकरण अवस्था कहते हैं -
ऊपर के निषेकों का कर्मस्वरूप पुद् गलद्रव्य उदयावली में आकर प्राप्त होता है, उसे उदीरणा कहते हैं।
जो कर्म अधिक समय की स्थिति वाला होकर, निषेकरूप सत्ता में पड़ा था, वह जीव के भावों का निमित्त पाकर उदयरूप निषेक से आवली प्रमाण (स्थिति वाला) निषेक (रूप हुआ), उनको उदयावली कहते हैं, उसमें (उदयावली में आकर प्राप्त हो आवलीकाल पर्यंत उदयरूप होते हैं, उसे उदीरणा कहते हैं।
उन कर्मों की उदीरणा योग्य जीव के भाव दो प्रकार के हैं - एक तो अंतरंग तीव्र - मंद अनुभाग को लिये मोहादि कर्मों का उदय हो, उसके अनुसार तीव्र-मंद कषायादि भाव होते हैं, उससे कर्मों की उदीरणा होती है और एक बाह्यकर्मों की उदीरणा योग्य परद्रव्यरूप सामग्री का मिलना और उसका निमित्त पाकर उसी के अनुसार उदीरणा योग्य जीव के कषायभाव होना तो कर्मों की उदीरणा होती है।
वहाँ तीव्र अनुभाग को लिये हुए मोहादि (मोह) कर्मों का उदय हो, तब आत्मा का तीव्रकषाय रूप संक्लेश भाव होता है।
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भावदीपिका चूलिका अधिकार (उदीरणाकरण) अ. ४
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जब आत्मा कृष्णादि अशुभ लेश्यादि अशुभ भावों रूप प्रवर्तता है, तब सातावेदनीय आदि शुभकर्म का उदय मिट जाता है और असातावेदनीय आदि अशुभकर्म की उदीरणा होती है।
जब जैसे दुःख के कारणरूप पदार्थों का अवलंबन करता है, तब जीव सुखी से दुःखी हो जाता है, रागी से द्वेषी हो जाता है, द्वेषी से रागी हो जाता है ज्ञानी से अज्ञानी हो जाता है, संयमी से असंयमी हो जाता है।
क्रोधी, मानी, मायावी, लोभी से अन्य अन्य क्रोधादि कषाय रूप हो जाता है। प्रसन्नता से शोकाकुल हो जाता है, रतिभाव से अरतिभाव को प्राप्त हो जाता है, अवेदभाव से सवेदभाव को प्राप्त हो जाता है, क्षुधा तृषादि रहित भाव से क्षुधा तृषादि सहित भाव को प्राप्त होता है - इत्यादि उदीरणा होने से कर्मों के पलटने से ही भावों का भी पलटना हो जाता है।
भावों के बदलने से कर्म भी बदल जाते हैं, ऐसा कर्मों के उदय का और जीव के भावों का निमित्त नैमित्तिक संबंध है ।
तथा जहाँ मन्द अनुभाग को लिये मोहादि कर्मों का उदय हो, तब आत्मा के मन्दकषायरूप विशुद्धभाव होते हैं; तब आत्मा शुक्लादि शुभ श्यादि शुभ भावों रूप परिणमता है, तब असातावेदनीय आदि अशुभकर्म का उदय नष्ट हो जाता है और सातावेदनीय आदि शुभकर्मों की उदीरणा हो उदय होता है।
जैसे ही सुख के कारण रूप पदार्थों का अवलंबन करता है, तब जीव दुःखी से सुखी होता है, रागी से विरागी, अज्ञानी से ज्ञानी, असंयमी से संयमी हो जाता है। क्रोधादि अन्य कषायरूप हो जाता है। शोकभाव मिटकर हर्षभाव रूप हो जाता है, अरतिभाव से रतिभाव, सवेदभाव से अवेदभाव, क्षुधा-तृषादि सहित भाव से रहित भाव को प्राप्त होता है। उदीरणा होते ही उक्त सभी भाव बदल जाते हैं।
इसप्रकार तो अंतरंग में शुभ-अशुभकर्म का उदय होने पर शुभ