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दशकरण चर्चा
उत्तर :- वेदनीय कर्म तो जीव को बाह्य अनुकूल-प्रतिकूल पदार्थों के संयोग-वियोग में एवं सुख-दुख के वेदन में निमित्त कारण है।
जब साता वेदनीय (पुद्गल विपाकी का) का उदय हो तो अनायास-सहज ही अनेक अनुकूल पदार्थों का संयोग होता है।
यदि जीव के परिणामों का अनुकूल निमित्त मिले तब साता वेदनीय के ही तीव्र उदय, उदीरणा हों तो वांछित अनुकूल बाह्य संयोगों की उपलब्धि विशेष होती है।
इसीप्रकार असाता-वेदनीय पर घटित कर लिजिए। ९. प्रश्न :- उदय, उदीरणा करण को समझने से क्या लाभ है?
उत्तर :- १. उदय, उदीरणाकरण का स्वरूप समझने से उदय, उदीरणा के संबंध में तत्संबंधी अपने अज्ञान का नाश होता है, ज्ञान होता है, आनन्द होता है।
२. किसी भी कर्म का किसी भी जीव के अनुकूल या प्रतिकूल उदय कभी भी आ सकता है - ऐसा जानकर वर्तमानकालीन संयोगों
और संयोगी भावों के प्रति एकत्व-ममत्व भाव नष्ट होता है अथवा उनमें मंदता आती ही है अर्थात् कषायें मंद होती हैं।
३. अघाति कर्मों के निमित्त से प्राप्त अनुकूल संयोगों में अपनापन कम होता है अथवा भूमिका के अनुसार नष्ट भी हो सकता है।
४. पात्र जीवों को 'मैं भगवान आत्मा' संयोग एवं संयोगी-भावों से भिन्न हूँ - ऐसी प्रतीति की अनुकूलता बनती है।
५. विश्व के अनेक जीवों के विभिन्न प्रकार की उदय तथा उदीरणाजन्य अवस्थाओं को देखकर वैराग्य/विरक्ति उत्पन्न होती है। यदि पहले से ही वैराग्य/विरक्ति हो तो उदय,उदीरणा को समझने से उसकी वृद्धि होती है। इसप्रकार और भी अनेक लाभ हैं।
१०. प्रश्न :- यदि उदीरणाकरण नहीं होता तो क्या होता?
आगमाश्रित चर्चात्मक प्रश्नोत्तर (उदीरणाकरण) अ. ४
उत्तर :- १. यदि उदीरणाकरण नहीं होता तो साधक को कर्मों की निर्जरा के लिए जो विशिष्ट पुरुषार्थ पाया जाता है, प्राप्त होना संभव नहीं होगा।
वैसे देखा जाये तो अति कषायवान अथवा अभव्य जीव को भी उदीरणा तो होती ही रहती है; तथापि उनके लिए वह मोक्ष का कारण नहीं बनती।
२. यदि उदीरणाकरण न हो तो प्रथमोपशम सम्यक्त्व की प्राप्ति के बाद फिर से मिथ्यात्व होने का भी काम नहीं हो सकताः क्योंकि प्रथमोपशम सम्यक्त्व के समय द्वितीय स्थिति में मिथ्यात्व की सत्ता होती है, उस सत्ता में से मिथ्यात्व की उदीरणा होने के कारण सम्यग्दृष्टि पुनः मिथ्यादृष्टि हो जाता है।
३. यदि उदीरणाकरण नहीं होता तो ग्यारहवें गुणस्थान से जीव के नीचे के गुणस्थानों में गिरने का कार्य भी नहीं हो सकता; क्योंकि वहाँ द्वितीय स्थितिरूप सत्ता में पड़े हुए चारित्रमोहनीय की उदीरणा होने के कारण ही मुनिराज दसवें आदि गुणस्थानों में आते हैं।
पण्डित कैलाशचन्दजी (बनारस) ने उदीरणा का स्वरूप निम्नप्रकार समझाया है -
"जैसे - आम बेचने वाले सोचते हैं कि वृक्ष पर तो आम समय आने पर ही पकेंगे, इसलिए वे उन्हें जल्दी पकाने के लिए आम के पेड़ में लगे हुए कच्चे हरे आमों को ही तोड़ लेते हैं, और उन्हें भूसे, पराल (पुलाव) आदि में दबा देते हैं, जिससे वे जल्दी ही पक जाते हैं।
- इसी प्रकार जिन कर्मों का परिपक्व (उदय) काल न होने पर भी उन्हें उदय में खींच कर लाया जाता है, अर्थात् समता, शमता, क्षमा, परीषहजय, उपसर्गसहन, तपश्चर्या, प्रायश्चित्त आदि द्वारा उन्हें (उन पूर्वबद्ध कर्मों को) उदय में आने से पूर्व ही भोग लिया जाता है, उदयावलि में नियत समय से पूर्व ही लाया जाता है, उसे उदीरणा कहते हैं।" . * १. (क) पंचम कर्मग्रन्थ, प्रस्तावना (पं. कैलाशचन्द्रजी शास्त्री), पृ. २४
Annanjiadhyatmik Diskaran Book
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