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दशकरण चर्चा
विषय प्रवेश
प्रथमानुयोग में मोक्षमार्गी अथवा मुक्तिप्राप्त महापुरुषों का पवित्र जीवन चरित्र होता है; जिससे पात्र जीवों को अपने जीवन में आदर्श बनाने के लिए प्रेरणा मिलती है। उसमें जीव का चरित्र प्रत्यक्ष होने के कारण इस अनुयोग का कथन सामान्यरूप से स्थूल रहता है। इस अनुयोग के अध्ययन से मनुष्य को अपने जीवन को पुण्यमय बनाने के लिए प्रेरणा मिलती है।
चरणानुयोग में मुख्यरूप से बाह्य आचरण की प्रधानता होने से खान-पान की, सदाचार की, पुण्यमय परिणामों की अधिकता रहती है। इसलिए चरणानुयोग के कथन में भी स्थूलता होती है। चरणानुयोग के अभ्यास से मनुष्य का जीवन सदाचारमय बनता है।
द्रव्यानुयोग में ९ पदार्थ, ७ तत्त्व, ६ द्रव्य, ५ अस्तिकाय तथा द्रव्य, गुण, पर्याय का बुद्धिगम्य कथन होता है। इसी अनुयोग में प्रत्येक जीव को निश्चयनय की अपेक्षा से स्वभाव से भगवान कहा जाता है। सभी पात्र जीवों को वस्तु स्वरूप का विषय समझ में आ जाय, जीवन में मोक्षमार्ग प्रगट हो, इस उद्देश्य से द्रव्यानुयोग में उपदेश रहता है, अतः कथन में स्थूलपना रहता है। इस अनुयोग का कथन उपादेय होते होते हुए भी स्थूल है।
अब रहा करणानुयोग का विषय। इस अनुयोग में असंख्यात द्वीप, असंख्यात समुद्र, अकृत्रिम जिनबिंब, जिन चैत्यालय, अलौकिक गणित, कर्म आदि दूरस्थ तथा सूक्ष्म विषयों का कथन होता है। इस अनुयोग में उपर्युक्त विषयों का ज्ञान तो किया जाता है; तथापि सर्वत्र बुद्धिपूर्वक परीक्षा करना सम्भव नहीं है।
आगम गर्भित युक्तियों से परीक्षा (सत्यासत्य का निर्णय) करना अलग विषय है और बुद्धिगम्य विषयों के माध्यम से परीक्षा करना अलग बात है।
__ हमें यहाँ इस कृति में सर्वज्ञ कथित सूक्ष्म विषय कर्म के संबंध में ही जानने का प्रयास करना है। जो कर्म का विषय आज प्रायः जीवों को न स्पर्श मूलक समझ में आया है, न रसनेन्द्रिय से जीव कर्म को चख सके हैं, न घ्राणेन्द्रिय से उसकी गंध सूंघ सके हैं, न आँखों से देख सके हैं और कर्मों का कानों से सुनना भी नहीं बना है; क्योंकि कोई भी कर्म इन्द्रियगम्य नहीं है। इसका अर्थ ऐसा नहीं है कि हम उसे जान ही नहीं सकते।
कर्मविषयक ज्ञान सिर्फ आगम प्रमाण से ही हो सकता है। सर्वज्ञ भगवान का उपदेश आज भी हमारे पास शास्त्रों के माध्यम से सुरक्षित है। उन शास्त्रों को पढ़कर हम कर्मों को जान सकते हैं। इन कर्मों का कथन मात्र कुछ ही इने-गिने शास्त्रों में आता है, ऐसा नहीं।
प्रथमानुयोगादि चारों अनुयोगों में कर्म का कथन नियम से आता ही रहता है जैसे हरिवंश पुराण के प्रारंभ में लगभग १०० पेजों में यही विषय है। करणानुयोग में कर्म के कथन की ही मुख्यता रहती है।
वैसे आचार्य वीरसेन ने कर्मों के कथन को द्रव्यानुयोग/अध्यात्म का कथन भी कहा है। अस्तु । हमें तो यहाँ कर्मों की बंध आदि दस अवस्थाओं पर विचार करना है।
कर्म की अवस्था को करण कहते हैं। प्रश्न :-कर्म की कितनी और कौन-कौनसी अवस्थाएँ होती हैं?
उत्तर :- कर्म की दस अवस्थाएँ होती हैं - १. बंध, २. सत्त्व (सत्ता), ३. उदय, ४. उदीरणा, ५. उत्कर्षण, ६.अपकर्षण,७. संक्रमण, ८. उपशांत, ९. निधत्ति, १०. निकाचित । ___इन दसों का क्रम भी वैज्ञानिक है; क्योंकि१. यदि जीव को कर्म का बन्ध नहीं होगा तो जीव की देखने में आनेवाली विविध अवस्थाएँ नहीं होगी और दुःखरूप संसार अवस्था का भी अभाव ही हो जायेगा।
२. यदि कर्म का बंध ही न हो तो उनका सत्त्व (सत्ता/अस्तित्व) कहाँ से होगा?
AananjuAdhyatmit Thankran ka. धवला पस्तक १३मल ग्रन्थ पृष्ठ ३६,प्रस्तावना, पृष्ठ-४