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दशकरण चर्चा
और उसकी रोटी बनती हुई हम देखते हैं। इसी प्रकार संसार में अगणि चीजें बंधी हुई प्रत्यक्ष मालूम होती हैं।
यही नहीं, अध्यापक अध्यापन कार्य से, वकील वकालत के पेशे से, व्यापारी अपने मनोनीत पदार्थ के व्यापार से, किसान कृषि से और चिकित्सक चिकित्सा-कार्य से बंधे होते हैं। माँ अपनी संतान के पालन-पोषण के लिए बंधी होती है। इसी प्रकार कई लोग अमुकअमुक सजीव (परिवार, समाज आदि के सदस्यों) तथा निर्जीव (धन, सम्पत्ति, मकान, दुकान, कार, बंगला आदि) पदार्थों (द्रव्यों) के प्रति ममत्ववश बंधे होते हैं। अधिकांश लोग अमुक-अमुक क्षेत्र (ग्राम, नगर, प्रान्त, राष्ट्र आदि) के प्रति मोहवश बंधे रहते हैं। कई लोग अमुक काल से बंधे होते हैं। दफ्तर, दुकान, सर्विस आदि पर पहुँच के लिए वे समय से बंधे होते हैं।
इसी प्रकार कई वस्तुएँ भी समय से बंधी होती हैं; जैसे - रेलगाड़ी, बस, विमान, रेडियो प्रसारण, टाईमबम आदि ।
संसार में विवाहित स्त्री-पुरुष प्रणयभाव से, माता-पुत्र वात्सल्यभाव से, गुरु-शिष्य उपकार्य-उपकारक भाव से तथा नौकर-मालिक स्वामीसेवक भाव से बंधे हुए होते हैं। इस प्रकार विभिन्न कोटि के व्यक्ति परस्पर द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से परस्पर सम्बद्ध और प्रतिबद्ध देखे जाते हैं।
आत्मा के साथ कर्मों के बन्ध के विषय में शंकाशील मानव -
ये सब वस्तुएँ एक दूसरे के साथ बन्धन के रूप में प्रत्यक्ष बद्ध दिखाई देती हैं, किन्तु जीव (आत्मा) के साथ कर्मबन्ध चर्मचक्षुओं से प्रत्यक्ष नहीं दिखाई देता, इस कारण कतिपय नास्तिक, अविश्वासी, अश्रद्धालु तथा संशयशील मस्तिष्क वाले व्यक्ति कर्मबन्ध का अस्तित्व नहीं मानते। उनका कहना है मिट्टी और पानी के सम्बन्ध से घट,
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विषय-प्रवेश
तन्तुओं के परस्पर सम्बन्ध से पट आदि की तरह जीव और कर्म का सम्बन्ध या बन्ध प्रत्यक्ष नहीं दिखाई देता। फिर अमूर्त आत्मा (जीव ) का मूर्त जड़ कर्मों से बन्ध कैसे हो सकता है? इन और ऐसे ही कुतर्कों के आधार पर वे लोग कर्मबन्ध का अस्तित्व मानने से इन्कार करते हैं। संकटापन्न स्थिति में उनके द्वारा कर्मबन्ध का स्वीकार -
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किन्तु वे ही महाशय अथवा पापकर्मी, स्वच्छन्दाचारी नास्तिक जब चारों ओर से किसी अपरिहार्य संकट, असह्य कष्ट, दुःसाध्य व्याधि अथवा किसी विपत्ति से घिर ही जाते हैं अथवा किसी स्वजन के वियोग से संतप्त होते हैं या पापकर्मग्रस्त व्यक्ति स्वयं कदाचित् मरणासन्न स्थिति में होते हैं। चारों ओर से हाथ-पैर मारने अथवा अनेक उपाय करने पर तथा पैसा पानी की तरह बहा देने पर भी जब उक्त संकट, कष्ट, रोग, संताप, विपत्ति एवं स्थिति आदि का निवारण नहीं होता, प्रश्न उलझता जाता है, तब वे ही लोग कर्मबन्ध के अस्तित्व को एक या दूसरे प्रकार से स्वीकार करते देखे गए हैं।""
अनादिकाल से आज तक अनन्त जीव सर्वज्ञ हो चुके हैं। भविष्य में अनन्त जीव सर्वज्ञ होनेवाले हैं। उन सभी सर्वज्ञ भगवन्तों ने अपनी दिव्यध्वनि में अनंत जीवों के कल्याण के लिए जिस तत्त्व का कथन किया है तथा करते रहते हैं उसका नाम जिनधर्म / जैनधर्म है।
जिनधर्म का प्रमुख वक्ता सर्वज्ञ भगवान ही होते हैं। इसलिए जिनवाणी (ग्रन्थ) के मूल ग्रन्थकर्त्ता सर्वज्ञ ही कहलाते हैं- “अस्य मूल ग्रन्थकर्तारः सर्वज्ञ देवाः"। इसलिए जिनधर्म में असत्य कथन तो हो ही नहीं सकता। जिनेन्द्र भगवान के सच्चे अनुयायी को इस तरह की यथार्थ एवं दृढ़ श्रद्धा होती है।
आध्यात्मिक सत्पुरुष श्री कानजीस्वामी के प्रवचनों में यह तथ्य सदा ही आता है कि ‘सर्वज्ञ भगवान तो जिनधर्म का मूल है।' सर्वज्ञ भगवान की दिव्यध्वनि में तो चारों अनुयोगों का कथन रहता है।
कर्मविज्ञान भाग-४, पृष्ठ-३, ४
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