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________________ विषय-प्रवेश 'कर्म' इस शब्द से सामान्य जन परिचित तो हैं; तथापि कर्म शब्द का प्रयोग अनेक विषयों का प्रतिपादक है, इस संबंध में कुछ कम ही विचार किया जाता है। इसलिए यहाँ हम कुछ खुलासा कर रहे हैं। जो मनुष्य सामान्यरूप से पढ़ाई करता है तो वह कम से कम इतना तो जानता ही है कि एक वाक्य में तीन विभाग होते हैं - एक कर्त्ता दूसरा कर्म और तीसरी क्रिया । इन तीनों के बिना वाक्य नहीं बनता । इसतरह व्याकरण शास्त्र में प्रत्येक वाक्य में कर्म होता है, जिसकी द्वितीया विभक्ति होती है। जैसे राम ने लक्ष्मण को समझाया। इस वाक्य में राम कर्त्ता है, लक्ष्मण कर्म है और समझाया, यह क्रिया है । यहाँ इस कृति में व्याकरण वाले कर्म का कुछ संबंध नहीं है। कर्म शब्द का उपयोग ग्रंथाधिराज समयसार शास्त्र में बहुत जगह आता है । समयसार में कर्त्ता-कर्म अधिकार नाम का एक स्वतंत्र अधिकार भी है । वहाँ तो द्रव्य को कर्ता और द्रव्य का जो परिणमन वह कर्म अथवा गुण को कर्त्ता और गुण का जो परिवर्तन / परिणमन होता है, उसे कर्म कहते हैं। द्रव्य व्यापक होता है और उसका परिणमन व्याप्य कहलाता है, उस व्याप्य को भी कर्म कहते हैं।' यहाँ इस कृति में समयसार में समागत कर्म से भी कुछ संबंध नहीं है। भगवत् गीता वैदिक सम्प्रदाय का महत्वपूर्ण ग्रन्थ है । भगवत् गीता में भी श्रीकृष्ण ने अर्जुन को निष्काम भावना से कर्म / कार्य / कर्तव्य करते रहो, फल की अपेक्षा मत रखो; ऐसा उपदेश दिया है। गीता में समागत कर्म का भी इस कृति से कुछ संबंध नहीं है । १. समयसार कलश क्र. ४९ 3D Kailash Data Annanji Adhyatmik Duskaran Book (3) विषय-प्रवेश एक दूसरे के साथ झगड़ा करने वाला तीव्र कषायी मनुष्य भी कहता है - “मैं तुम्हारे सब खटकर्म (पाप / अनुचित कार्य / निंदित कार्य) जानता हूँ। मुँह खोलूँगा तो पता चलेगा। चुप बैठने में ही तुम्हारी भलाई है।" ऐसे प्रकरण में जो कर्म शब्द आता है, उसका भी यहाँ संबंध नहीं है। यहाँ सर्वज्ञ/केवली भगवान के दिव्यध्वनि में अथवा जिनेन्द्र कथित आगम / शास्त्र में जो कर्म शब्द आता है, मात्र उससे ही प्रयोजन है, जिसके ज्ञानावरणादि आठ भेद कहे जाते हैं। कर्म की परिभाषा निम्नानुसार है - "जीव के मोह, राग, द्वेषादि परिणामों के निमित्त से स्वयं परिणमित कार्माणवर्गणारूप पुद्गल की विशिष्ट (जीव के साथ, एकक्षेत्रावगाही) अवस्था को कर्म कहते हैं।" ज्ञानावरणादि आठ कर्मरूप परिणमित होने योग्य वर्गणाओं (पुद्गल स्कन्धों ) को कार्माणवर्गणा कहते हैं। जिनेन्द्र कथित ज्ञानावरणादि आठ कर्मों की बंध, सत्व आदि दस अवस्थाएँ होती है। उन दस अवस्थाओं को यहाँ जानने का हमारा प्रयोजन है। कर्मबन्ध के अस्तित्व संबंधी कर्मविज्ञान ग्रन्थ का अंश अनुकूल लगा। जो इसप्रकार है - "सजीव - निर्जीव वस्तुओं का परस्पर बन्ध: प्रत्यक्षगोचर - संसार में सर्वत्र ईंट, सीमेंट आदि पदार्थ मकान के रूप में बंधे हुए प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर होते हैं। अनेक कागजों को परस्पर मिलाकर, उन्हें सीं कर और चिपका कर पुस्तक की जिल्द बाँधी जाती है; यह कागजों का परस्पर बन्ध भी प्रत्यक्ष दिखाई देता है। इसी प्रकार एक जमींदार के घर में घोड़ा, गाय, भैंस आदि पशु रस्सी के द्वारा खूंटों से बंधे हुए नजर आते हैं। आटा, पानी आदि मिल कर गूंथने से एक पिण्ड बंध जाता है
SR No.009441
Book TitleAdhyatmik Daskaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages73
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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