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दशकरण चर्चा
१. दस करणों को समझने के प्रयास के काल में मैंने भीण्डर निवासी पण्डित श्री जवाहरलालजी की कृति करणदशक देखी । २. गोम्मटसार कर्मकाण्ड की हिन्दी टीकाएँ, जो अनेक संस्थाओं से एवं भिन्न-भिन्न व्यक्तियों से संपादित हैं उनको भी देखा।
३. दस करणों को समझने के लोभ से ही दसकरणों के संबंध में पुराने विद्वानों ने जो स्वतंत्र लेखन किया है, उसे भी देखा उनमें सुदृष्टितरंगिणी एवं भावदीपिका भी सम्मिलित है। वैसे इस कृति में पण्डित श्री दीपचन्दजी कृत भावदीपिका के करणरूप विषय को पूर्णरूप से ही लिया है।
४. आचार्य श्री देवेन्द्र मुनि की कृति कर्मविज्ञान से भी लाभ लिया है। ५. ब्र. जिनेन्द्रवर्णीजी का कर्मरहस्य, कर्मसिद्धान्त, कर्मसंस्कार आदि का अच्छा लाभ मिला है।
६. पण्डित कैलाशचन्दजी बनारसवालों के करणानुयोग प्रवेशिका का भी उपयोग किया है।
अनेक विषयों की भिन्न-भिन्न परिभाषाएँ भी दी हैं। उससे पाठक विषय को स्पष्ट समझ सकेंगे।
करणानुयोग का कर्म विषय ही ऐसा है, जिसे यथार्थरूप से तो सर्वज्ञ भगवान ही जान सकते हैं । इस कारण ही कुछ विषयों को लेकर बड़े-बड़े आचार्यों में भी मतभेद पाया जाता है। वे भी क्या कर सकते हैं? जिनको अपनी गुरु परंपरा से ज्ञान प्राप्त हुआ, उन्होंने उसी को स्वीकार किया ।
जीवादि सात तत्त्वों में ऐसा मतभेद नहीं होता; क्योंकि सप्त तत्त्व तो प्रयोजनभूत तत्त्व हैं और उनका कथन स्पष्ट है। उनके यथार्थ ज्ञानश्रद्धान से ही मोक्षमार्ग प्रगट होता है।
सूक्ष्म विषय समझना एवं समझाना सुलभ हो; इस भावना से इस
Khata Annanji Adhyatmik Dakaran Book
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मनोगत
कृति में सर्वत्र प्रश्नोत्तर शैली का बुद्धिपूर्वक उपयोग किया है।
मेरे जीवन का बहुभाग धर्म के अध्ययन और अध्यापन में ही गया है; तथापि अनेक वर्षों तक कर्म बलवान है, इस धारणा ने मुझे अत्यन्त परेशान किया था। ऐसी परेशानी अन्य साधर्मी को न हो; इस भावना से भी मैंने कुछ प्रश्नोत्तर बुद्धिपूर्वक इस कृति में लिये हैं।
कुछ प्रश्न ऐसे भी हैं, जो पढ़ाते समय महाविद्यालय में विद्यार्थियों ने अथवा समाज में साधर्मियों ने पूछे थे ।
एक दृष्टि से धर्मज्ञान के क्षेत्र में जो मैं समझ पाया, उसी का ही चित्रण इस कृति में है, कपोल-कल्पित कुछ नहीं है। मैं धर्मक्षेत्र में कपोलकल्पित विषय को स्वीकार करना भी नहीं चाहता; क्योंकि वह उचित भी नहीं है। सर्वज्ञ भगवान के उपदेशानुसार जो है, वही मान्य है ।
मैं अपना भाव स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि मेरा अध्ययन तो विशेष नहीं है तो भी मैंने मात्र अपने उपयोग को निर्मल रखने के लिए तथा तत्त्वनिर्णय में अनुकूलता बनी रहे, इस धर्मभावना से दशकरणों के संबंध में कुछ लिखने का प्रयास किया है। विज्ञ पाठक गलतियों की क्षमा करेंगे और मुझे मार्गदर्शन करेंगे। ऐसी अपेक्षा करता हूँ ।
इस कृति को यथार्थ बनाने की भावना से मैंने अनेक लोगों को इसे दिखाया है और उनके सुझावों का लाभ भी उठाया है। उनमें पं. राजमलजी भोपाल, पं. प्रकाशजी छाबड़ा इन्दौर, विदुषी विजया भिशीकर कारंजा, पं. जीवेन्द्रजी जड़े, बाहुबली (कुंभोज), ब्र. विमलाबेन जबलपुर एवं अरुणकुमार जैन अलवर है। मैं इन सबका हृदय से आभार मानता हूँ। इनके सहयोग के बिना इस कृति का प्रकाशन संभव नहीं था ।
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साधर्मी इस कृति से लाभ उठा लेंगे, ऐसी अपेक्षा है। जिनागम के अभ्यासु पाठकगण इस कृति का अवलोकन करके मुझे आगम के आधार से मार्गदर्शन करेंगे ही यह भावना है।
- ब्र. यशपाल जैन