SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 38
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ७२ दशकरण चर्चा आगमाश्रित चर्चात्मक प्रश्नोत्तर (उदयकरण ) अ. ३ रहा है। इत्यादि सर्व कथन - जो जिनवाणी में हजारों स्थान पर आये हैं, निमित्त की मुख्यता से उचित निमित्त का ज्ञान कराने के लिए ही आये हैं। एक द्रव्य अन्य द्रव्य का कर्ता-धर्ता नहीं है। यह वीतरागी जिनधर्म का प्राण है। द्रव्यानुयोग में यहाँ तक कथन आता है कि द्रव्य और गुणों से भी पर्याय नहीं होती। पर्याय अपने षट्कारकों से अपने काल में अपनी स्वयं की पर्यायगत योग्यता से होती है। द्रव्य अपने कारण से द्रव्य है। गुण, अपने कारण से गुणरूप है। द्रव्य के कारण गुण और गुण के कारण से द्रव्य, यह भी व्यवहार कथन है। इस यथार्थ वस्तु-व्यवस्था को जब जीव स्वीकार करता है, तब कर्म जीव को हैरान करता है, यह कथन मात्र उपचरित व्यवहारनय का कथन है, ऐसा पक्का निर्णय होता है। करणानुयोग की कथन शैली निमित्त की मुख्यता से होती है। प्रथमानुयोग एवं चरणानुयोग में भी निमित्त को ही महत्त्व दिया जाता है। इतना ही नहीं उपादान की मुख्यता से प्रतिपादन करने वाले द्रव्यानुयोग में भी निमित्तपरक कथन कुछ कम नहीं रहता। इसलिए पात्र जीव को तो उपादान के कथन की मुख्यता से कहने वाले विषय को प्रधान/मुख्य करके सोचते हुए यथार्थ तत्त्वनिर्णय करना आवश्यक है। निमित्त है, कर्म है, कर्म को उपचार से बलवान भी कहा गया है; लेकिन वह बलवान नहीं है, जीव ही बलवान है। पंचास्तिकाय शास्त्र की अनेक गाथाओं का अर्थ यहाँ उपयोगी होने से मात्र गाथाओं का अर्थ आगे दे रहे हैं - कर्म भी अपने स्वभाव से अपने को कर्ता है। वैसा जीव भी कर्मस्वभाव भाव से (औदयिकादि भाव से) बराबर अपने को करता है।।62 ।। १. इस संबंध में लेखक की गुणस्थान-विवेचन किताब का पृष्ठ २६२ से २६५ को देखना उपयोगी रहेगा। यदि कर्म कर्म को करे और आत्मा आत्मा को करे तो कर्म आत्मा को फल क्यों देगा? और आत्मा उसका फल क्यों भोगेगा? ।।६३ ।। लोक सर्वतः विविध प्रकार के अनन्तानन्त सूक्ष्म तथा बादर पुद्गल कायों (पदगल स्कंधों) द्वारा विशिष्ट रीति से अवगाहित, (गाढ भरा) हुआ है।।64|| ____ आत्मा (मोह-राग-द्वेषरूप) अपने भाव को करता है; (तब) वहाँ रहने वाले पुद्गल अपने भावों से जीव में (विशिष्ट प्रकार से) अन्योऽन्य अवगाहरूप से प्रविष्ट हुए कर्मभाव को प्राप्त होते हैं ।।६५ ।। जिसप्रकार पुद्गल द्रव्यों की अनेक प्रकार की स्कंध रचना पर से किए गए बिना होती दिखाई देती है; उसीप्रकार कर्मों की बहु प्रकारता पर से अकृत जानो।।66|| प्रवचनसार ग्रन्थ का ज्ञेयाधिकार वस्तुव्यवस्था का ज्ञान करने के लिए अत्यन्त उपयोगी है। प्रत्येक पर्याय का जन्मक्षण स्वतंत्र है; यह विषय गाथा नं. १०२ में आया है। __ आप कहोगे कि धार्मिक होने पर तो कर्म फल दिये बिना जा सकते हैं। हाँ, हम इतना ही चाहते हैं कि कर्म किसी को भी सही अथवा कभी ना कभी सही फल दिये बिना जा सकते हैं। इससे यह तो स्पष्ट हो ही गया कि जीव बलशाली है - जीव अपने आप बदलता है तो कर्मों में भी बदल हो ही जाता है। - यह तो धर्म (सम्यक्त्व + चारित्र) धारण करने के बाद की चर्चा हुई। मैं तो यह कहना चाहता हूँ कि यह जीव धार्मिक न होने पर भी कर्म अपने में जितनी सामर्थ्य है, उतनी सामर्थ्य के साथ जीव को फल देने में समर्थ नहीं है। १३. प्रश्न :- आप यह शास्त्र के विरुद्ध कैसी बात कर रहे हो? an ext १. इस गाथा की टीका भी अवश्य देखें। (38)
SR No.009441
Book TitleAdhyatmik Daskaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages73
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy