________________
७०
दशकरण चर्चा जाती है तो सहज ही पुरुष (पति) के द्वारा भोगने योग्य हो जाती है। इस उदाहरण के माध्यम से आचार्यदेव यह स्पष्ट करना चाहते हैं कि स्वयं के द्वारा पूर्व में बाँधे गये और जो अभी सत्ता में विद्यमान हैं, वे कर्म जीव के द्वारा अभी बालिका स्त्री के समान भोगने योग्य नहीं हैं: किन्तु जब उनका उदयकाल आयेगा, तब वे जवान स्त्री की भाँति भोगनेयोग्य हो जायेंगे।
दूसरी बात यह है कि जिसप्रकार पूर्व में विवाहित वह बाल स्त्री जवान हो जाने पर भी पुरुष (पति) को पुरुष के रागभाव के कारण ही वश में करती है, बंधन में डालती है। यदि पुरुष (पति) के हृदय में रागभाव न हो तो वह जवान स्त्री (पत्नी) भी उसे नहीं बाँध सकती; उसीप्रकार पूर्व में बद्ध कर्म उदय में आने पर भी जीव को उसके रागभाव के कारण ही बंध के कारण बनते हैं। यदि जीव की पर्याय में रागभाव न हो तो मात्र द्रव्यकर्मों का उदय कर्मबंध करने में समर्थ नहीं होता।
यहाँ इसी बात पर विशेष वजन दिया गया है कि आत्मा में उत्पन्न मोह-राग-द्वेषरूप भाव ही मूलत: बंध के कारण हैं। यदि मोह-रागद्वेष न हो तो पूर्वबद्ध कर्म का उदय भी बंधन करने में समर्थ नहीं है। इसप्रकार न तो बंधावस्था को प्राप्त कर्म, बंधन के कारण हैं; न सत्ता में पड़े हुए कर्म, बंधन के कारण हैं और न रागादि के बिना उदय में आये कर्म, बन्धन के कारण हैं।
इसप्रकार यह सिद्ध हुआ कि कर्म का बंध, सत्त्व और उदय जीव को बन्धन में नहीं डालते, आगामी कर्मों का बन्ध नहीं करते; अपितु आत्मा में उत्पन्न होनेवाले रागादिभाव ही कर्मबंध के मूलकारण हैं। अतः कर्मों के बंध, सत्त्व और उदय के विचार से आकुलित होने की आवश्यकता नहीं है" समयसार ||१७३-१७६ ।।
कर्म का उदय होने पर औदयिक भाव होता ही है, यह निमित्त की मुख्यता से कथन है। व्यवहार का कथन है। वास्तविक वस्तुस्वरूप तो यह है कि जब जीव विकारभाव से परिणमित होता है, तब कर्म के निमित्त का व्यवहार होता है।
आगमाश्रित चर्चात्मक प्रश्नोत्तर (उदयकरण)
इसी विषय को आचार्य अमृतचन्द्र ने समयसार कलश १७३ में भी कहा है। इसी कलश का पद्यानुवाद करते समय पण्डित बनारसीदासजी समयसार नाटक में निम्नानुसार लिखते हैं; उसे संक्षेप में अर्थ सहित दे रहे हैं -
"तेई जीव परम दसा मैं थिररूप छैक।
धरम मैं धुके न करम सौं रुकत हैं ।। भावार्थ - ऐसे जीव निर्विकल्प निरुपाधि आत्मसमाधि को साधकर सगुण मोक्षमार्ग में तेजी से बढ़ते हैं और परमदशा में स्थिर होकर धर्ममार्ग में तेजी से बढ़ते हुए मुक्ति को प्राप्त करते हैं; कर्मों के रोके रुकते नहीं हैं।"
अनेक स्थान पर शुद्धोपयोग में - मुख्यतया जब श्रेणी पर मुनिराज आरूढ़ रहते हैं, उस समय के संबंध में कथन ऐसा भी आता है कि जो अबुद्धिपूर्वक विभाव भाव होता है, उसे कर्म के उदय का कार्य भी कहा जायेगा और कर्म ने कुछ फल दिया ही नहीं, ऐसा भी समझाया जाता है।
जब वर्तमान पर्याय के विभाव भाव की मुख्यता करते हैं तो उस विभाव भाव को कर्म के उदय का कार्य ही कहना उचित है।
जब कर्मबन्ध के समय जितना अनुभाग बंध हुआ था और जितना अनुभाग/फल मिलना चाहिए था, उतना फल मिलता हआ देखने में न आने पर कर्म का फल मिला ही नहीं, ऐसा भी कथन उचित ही है।
१. कर्म के उदयानुसार जीव को औदयिक भाव होते हैं। २. कर्म का उदय औदयिक भाव को करता है। ३. कर्म औदयिक भाव को उत्पन्न करता है। ४. कर्म का उदय किसी भी जीव को नहीं छोड़ता। ५. कर्म बहुत बलवान है । ६. कर्म के निमित्त से नैमित्तिकरूप औदयिक
भाव होते ही हैं। ७. कर्म के सामने किसी का कुछ नहीं चलता। ॥ २८. अनादिकाल से कर्म ही जीव को संसार में रुला रहा है - दुःख दे
(37)