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दशकरण चर्चा
आगमाश्रित चर्चात्मक प्रश्नोत्तर (उदयकरण) अ. ३
हिन्दी अर्थ :- द्रव्य मोह का उदय होने पर भी यदि शुद्धात्मभावना के बल से भावमोहरूप परिणमन नहीं करता तो बन्ध नहीं होता। यदि पुनः कर्मोदय मात्र से बंध होता तो संसारियों के सदैव कर्म के उदय की विद्यमानता होने से सदैव-सर्वदा बंध ही होगा, कभी भी मोक्ष नहीं हो सकेगा - यह अभिप्राय है।
१२. प्रश्न :- पूँछने में संकोच तो हो रहा है तो भी पूँछ ही लेते हैं - आचार्य जयसेन से भी प्राचीन आचार्य का हम कथन चाहते हैं?
उत्तर :- तत्त्वनिर्णय के लिए पूछने में संकोच करने की क्या आवश्यकता है? आचार्य समंतभद्र ने तो १८०० वर्ष पूर्व आप्तमीमांसा ग्रन्थ में भगवान की भी परीक्षा की है। आचार्य विद्यानन्द ने तो आप्त परीक्षा नाम का शास्त्र ही लिखा है। अतः प्रश्न करने में संकोच नहीं करना चाहिए। ___ आचार्य कुन्दकुन्द ने ग्रंथाधिराज समयसार की मूलगाथा १७३ में लिखा है - “सम्यग्दृष्टि के समस्त पूर्वबद्ध प्रत्यय (द्रव्यास्रव) सत्तारूप में विद्यमान हैं, वे उपयोग (ज्ञान-दर्शन) के प्रयोगानुसार कर्मभाव के द्वारा (रागादि के द्वारा) नवीन बंध करते हैं।"
आगे आचार्य कुन्दकुन्द ने ही गाथा १७४,१७५, १७६ में उदाहरण देकर इसी विषय को अधिक स्पष्ट किया है। आचार्य अमृतचन्द्र ने संस्कृत टीका में भी इसी विषय को और अधिक स्पष्ट किया है।
पण्डित जयचन्दजी छाबड़ा ने भी भावार्थ में मर्म को स्पष्ट किया है। श्री छाबड़ाजी के भावार्थ का अंश -
"द्रव्यासवों के उदय में युक्त हुये बिना जीव के भावासव नहीं हो सकता और इसलिये बन्ध भी नहीं हो सकता। द्रव्यास्रवों का उदय होने पर जीव जैसे उसमें युक्त हो अर्थात् जिसप्रकार उसे भावास्रव हो"
उसीप्रकार द्रव्यास्रव नवीन बन्ध के कारण होते हैं। यदि जीव भावासव न करे तो उसके नवीन बन्ध नहीं होता।"
डॉ. हकमचन्द भारिल्ल कृत समयसार शास्त्र की ज्ञायकभाव प्रबोधिनी टीका में यह विषय आचार्य अमृतचन्द्र द्वारा और स्पष्ट किया है। उसे यहाँ दे रहे हैं - ___“जिसप्रकार तत्काल की विवाहित बाल स्त्री अनुपभोग्य है, भोगने योग्य नहीं; किन्तु वही पहले की परिणीत बाल स्त्री यथासमय यौवनावस्था को प्राप्त होने पर उपभोग्य हो जाती है, भोगने योग्य हो जाती है। वह यौवनावस्था को प्राप्त युवती स्त्री जिसप्रकार उपभोग्य हो, तदनुसार वह पुरुष के रागभाव के कारण ही पुरुष को बंधन में डालती है, वश में करती है। ___उसीप्रकार पुद्गलकर्मरूप द्रव्यप्रत्यय पूर्व में सत्तावस्था में होने से अनुपभोग्य थे; किन्तु जब विपाक अवस्था में, उदय में आने पर उपभोग के योग्य होते हैं, तब उपयोग के प्रयोगानुसार अर्थात् जिसरूप में उपभोग्य हों, तदनुसार कर्मोदय के कार्यरूप जीवभाव के सद्भाव के कारण ही बंधन करते हैं। इसलिए यदि ज्ञानी के पूर्वबद्ध द्रव्यप्रत्यय विद्यमान हैं तो भले रहें; तथापि वह ज्ञानी निरास्रव ही है; क्योंकि कर्मोदय का कार्य जो राग-द्वेष-मोहरूप आसवभाव है, उसके अभाव में द्रव्यप्रत्यय बंध के कारण नहीं हैं।"
डॉ. भारिल्ल ही आचार्य अमृतचन्द्र के इसी विषय को और अधिक स्पष्ट कर रहे हैं - ___ “यहाँ उदाहरण में तत्काल की विवाहित बाल स्त्री ली है। यद्यपि लोक में कानूनी और सामाजिक दृष्टि से विवाहित स्त्री को उसके पति द्वारा भोगने योग्य माना जाता है; तथापि यदि वह विवाहित स्त्री बालिका
हो, कच्ची उम्र की हो तो विवाहित होने पर भी बाल्यावस्था के कारण mun भोगने योग्य नहीं होती; किन्तु जब वही विवाहित बालिका जवान हो
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